Monday, October 11, 2010

अयोध्या में राम भी रहीम भी




प्रदीप उपाध्याय

इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने 30 सितम्बर कोराम और रहीमके सिद्धांत को पुर्नस्थापित करते हुए विवादित स्थल को तीन भागों में बांटने के निर्देश दिए हैं। विवादित स्थल के मालिकाना हक को लेकर पिछले 60 वर्षों से चल रहे इस विवाद पर स्वतंत्र भारत का यह पहला न्यायिक निर्णय है। इस निर्णय के अनुसार विवादित भूमि को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के पक्षकारों के बीच बराबर बांटा जाएगा।

कोर्ट
के फैसले का दोनों समुदायों ने स्वागत किया है। हालांकि उन्हें कुछ शिकायतें भी हैं, जिसके निवारण के लिए वे सुप्रीम कोर्ट में जाने की तैयारी कर रहे हैं। इस फैसले ने हिंदू-मुस्लिम एकता की मिशाल कायम करते हुए पाकिस्तान, बांग्लादेश और अरबी चैनलों के हाथों से भारत की आलोचना करने के एक सुनहरा मौका छिन लिया है।

पाकिस्तानी मीडिया तो शायद इस फैसले के बाद भारत में दंगों की उम्मीद लगाए बैठी थी, लेकिन हिन्दुस्तान की जनता ने उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। हमारे देश के युवाओं ने दिखा दिया कि हमारा देश एकता के सूत्र में पिरोई हुई वो माला है जिसे दुनिया की कोई ताकत नहीं तोड़ सकती है

अगर मैं अपने शब्दों का इस्तेमाल करूं तो एक बात ही मुंह से निकलती है किइस माला को सदा पिरोए रखना, हिंदू-मुस्लिम रूपी इन मोतियों को संजोए रखना, तोड़ पाए कोई इसे, ये याद रखना, प्यार भरे इस दामन को हमेशा थामे रखना।

ये पंक्तियां किसी शायर या कवि की कल्पना नहीं है, ये मेरी मेरे देश के युवाओं से एक उम्मीद है। इन पक्तिंयों से मैंने अपने युवा वर्ग को ये समझाने की कोशिश की है कि तुम अलग-अलग धर्म या सम्प्रदाय को भले ही मानते हो लेकिन ये कभी मत भूलना की तुम एक मां की संतान हो।

मेरा मानना है कि दो भाईयों में थोड़ी देर के लिए मनमुटाव हो सकता है, लेकिन उनमें कितना ही मनमुटाव क्यों हो पर दोनों में से कोई भी अपने भाई को लहुलूहान नहीं देख सकता।

इसका ताजा उदाहरण गुरूवार को देखने को मिला जब मुसलमान और हिंदू कोर्ट के निर्णय जानने के लिए सुबह से ही अपने घरों में टेलीविजन के सामने बैठे थे और जब कोर्ट ने निर्णय सुनाया तो दोनों ने खुले दिल से उसे स्वीकार किया।

इस फैसले ने दोनों समुदायों को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है। दोनों ही समुदाय शांति और सौहार्दपूर्ण माहौल कायम रखने के पक्षकार हैं। वे नहीं चाहते की ईश्वर के नाम पर राजनीतिक लोग अपनी रोटियां सेंकने के लिए किसी हिंदू या मुसलमान की लाशों का सौदा करें। आज वे समझ चुके हैं कि राम या रहीम दोनों एक ही परमशक्ति परमात्मा के दो अलग-अलग नाम हैं।

आज का युवा वर्ग बौद्धिक स्तर पर धर्म के बजाए आर्थिक विकास के बारे में ज्यादा सोचता है। वह यह नहीं चाहेगा कि ईश्वर का घर कहे जाने वाले मंदिर या मस्जिद की नीव में बेगुनाहों की लाशें भरी जाए।

हमें ईश्वर को याद करने के लिए किसी मंदिर या मस्जिद की जरूरत नहीं है। यदि पुराण और ग्रंथों को देखे तो इस बात का कई बार जिक्र किया गया है कि हर जीव और चराचर विश्व के कण-कण में ईश्वर का वास है। तो क्या हर कण में बसने वाले उस ईश्वर को हम मंदिर और मस्जिद की सीमा में बांध सकते हैं?

हमें केवल अपने अंदर ईश्वर के उस दिव्य रूप को ढूंढ़ना है, जो हमारी आखों की पकड़ से दूर है और जिसे केवल आध्यात्म के जरिए ही देखा या पाया जा सकता है। यही कारण है कि हर साल बड़ी संख्या में विदेशी लोग आध्यात्म की खोज के लिए भारत में आते है।

आज मैं देश की युवा वर्ग की उस सोच को बदलाव देख रहा हूं, जिसमें वहसुक्ष्म से विस्तृत की ओरबढ़ता था। लेकिन अब उसका सोचने का नजरिया बदल गया है, अब वहविस्तृत से सुक्ष्म की ओरबढ़ रहा है।
मैंने ये शब्द पहली बार सातवी क्लास में अपने अध्यापक से सुने थे। उन्होंने मेरी क्लास के 58 विद्यार्थियों से उनका परिचय पूछा, तो हर किसी ने अपने नाम के पीछे जाति सूचक उपनाम और अपने राज्य का नाम जोड़ कर बताया। इस पर मेरे अध्यापक ने कहा था कि यह देश का दुर्भाग्य है कि आज का युवा भी सुक्ष्म से विस्तृत की ओर बढ़ रहा है। उनकी ये बातें तो उस समय मेरी समझ में नहीं आयी, लेकिन आज मैं इन बातों के अर्थ को अच्छी तरह समझ गया हूं।

मेरी इन पक्तिंयों को युवा वर्ग को समझना होगा।सुक्ष्म से विस्तृत की ओरबढ़ना इसका तात्पर्य उस परिचय से है जिसमें हम कहीं भी अपना परिचय देते हुए अपने नाम के साथ जाति और राज्य का नाम जोड़ देते हैं। क्योंकि हम हर काम में पहले अपना, फिर अपने परिवार का, जाति, क्षेत्र, राज्य का फायदा देखने के बाद देश के फायदे के बारे में सोचते हैं।

जबकिविस्तृत से सुक्ष्म की ओरजाने का अर्थ है पहले देश फिर राज्य, क्षेत्र, जाति और उसके बाद परिवार स्वयं। यह दृष्टिकोण जिस देश के युवाओं में होता है वह राष्ट्र बुलंदी की हर ऊचाई को प्राप्त कर लेता है।

खैर इन बातों को छोडों हम तो बात कर रहे थे- अयोध्या मुद्दे की।

लम्बे समये से दोनों समुदायों के बीच टकराव की वजह बने इस विवाद पर सुनाई कर रहे तीन जजों ने कुछ बिंदुओं को छोड़ सर्वसम्मति से फैसला किया है। अब आप पूछेंगे कि मीडिया के मुताबिक तो फैसला 2-1 बहुमत के आधार पर आया है, फिर मैं इसे सर्वसम्मति से लिया गया फैसला कैसे कह सकता हूं।

इसका एक कारण कुछ मुद्दों को छोड़ कर तीनों जज का एक मत होना है। सुनवाई के दौरान उठाए गए अहम प्रश्न और उन पर जजों की राय-


1. क्या यहां मस्जिद थी?
जस्टिस एसयू खान- हां।
जस्टिस सुधीर अग्रवाल- हां, मुसलमानों ने हमेशा इसे मस्जिद माना है।
जस्टिस धर्मवीर शर्मा- नहीं, क्योंकि ये इस्लाम की परंपरा के खिलाफ बनाई गई थी।

निर्णय- हां (बहुमत के आधार पर)।

2. क्या विवादित भूमि श्रीराम की जन्मभूमि है?
जस्टिस एसयू खान- मस्जिद बनने के बाद से हिन्दुओं ने इसे राम जन्मभूमि माना है।
जस्टिस सुधीर अग्रवाल- हां, हिन्दुओं की यही मान्यता है।
जस्टिस धर्मवीर शर्मा- हां।

निर्णय- हां (सर्वसम्मत)।

3. क्या मस्जिद बनाने के लिए मंदिर को गिराया गया था?
जस्टिस एसयू खान- मस्जिद बनाने के लिए कोई हिंदू मंदिर नहीं ढहाया गया। उस स्थल पर काफी पहले से मंदिर के अवशेष पड़े थे। उनका इस्तेमाल मस्जिद बनाने में भी किया गया था।
जस्टिस सुधीर अग्रवाल- हां, एक गैर-इस्लामी ढांचे (हिन्दू मंदिर) को गिराया गया था।
जस्टिस धर्मवीर शर्मा- आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया यानी (एएसआई) ने साबित किया है कि एक बड़ा हिन्दू धार्मिक ढांचा गिराया गया था।

निर्णय- हां (सर्वसम्मत)।

4. क्या मूर्तियां 22−23 दिसंबर, 1949 की रात रखीं गई थीं।
जस्टिस एसयू खान− हां।
जस्टिस सुधीर अग्रवाल− हां।
जस्टिस डीवी शर्मा− हां।

निर्णय- हां (सर्वसम्मत)।

5. क्या ये जगह हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों से जुड़ी है।
जस्टिस एसयू खान- हां।
जस्टिस सुधीर अग्रवाल- हां।
जस्टिस डीवी शर्मा- नहीं, सिर्फ हिन्दुओं से।

निर्णय- हां (बहुमत के आधार पर)।

6. क्या राम की मूर्ति मुख्य गुंबद के नीचे रहनी चाहिए?
जस्टिस एसयू खान− हां।
जस्टिस सुधीर अग्रवाल− हां।
जस्टिस डीवी शर्मा− हां।

निर्णय- हां (सर्वसम्मत)।


7. भूमि के बंटवारे का आधार?
जस्टिस एसयू खान- तीनों को एक तिहाई हिस्सा मिले। मुख्य गुंबद हिन्दुओं को, सीता की रसोई और राम का चबूतरा निर्मोही अखाड़ा को।
सुधीर अग्रवाल- तीनों को एक-तिहाई हिस्सा मिले। मुख्य गुंबद हिन्दुओं को, सीता की रसोई और राम का चबूतरा निर्मोही अखाड़ा को।
जस्टिस डीवी शर्मा- मंदिर के निर्माण में मुसलमान हस्तक्षेप न करें।

निर्णय- बहुमत के आधार पर तीनों को एक-तिहाई हिस्सा मिले।(मुख्य गुंबद हिन्दुओं को, सीता की रसोई और राम का चबूतरा निर्मोही अखाड़ा को।)

8. क्या यह मस्जिद है तो इसे बाबर ने बनवाया या मीर बाकी ने?
जस्टिस सुधीर अग्रवाल- वादी यह साबित करने में नाकामयाब रहे कि विवादित ढांचा बाबर या मीर बाकी ने बनवाया।
जस्टिस धरमवीर शर्मा- इसे बाबर ने बनाया था।
जस्टिस एस.यू खान- यह तय नहीं है कि मस्जिद किसने बनवाई।

निर्णय- नहीं (बहुमत के आधार पर)।

9. क्या मुकदमा समय रहते दायर किया गया?
जस्टिस सुधीर अग्रवाल- नहीं।
जस्टिस धरमवीर शर्मा- नहीं।
जस्टिस एस.यू खान- नहीं।

निर्णय- नहीं (सर्वसम्मत)।

10. क्या रामजन्मभूमि पर हिंदू आदिकाल से पूजा-अर्चना करते रहे हैं और तीर्थयात्रा के लिए वहां आते रहे हैं?
जस्टिस सुधीर अग्रवाल- हां।
जस्टिस धरमवीर शर्मा- हां।
जस्टिस एस.यू खान- हां।

निर्णय- हां (सर्वसम्मत)।


फैसलें
1. जस्टिस सुधीर अग्रवाल- विवादास्पद स्थान के अंतर्गत केंद्रीय गुंबद के दायरे में आना वाला क्षेत्र भगवान राम का जन्म स्थान है, जैसा की हिंदू धर्मावलंबी सोचते हैं। विवादास्पद स्थान को हमेशा मस्जिद की तरह माना गया और वहां मुस्लिमों ने नमाज पढ़ी। लेकिन यह साबित नहीं हुआ कि यह बाबर के समय 1528 में बनाई गई थी।


2. जस्टिस एस.यू. खान- मस्जिद बनाने के लिए किसी मंदिर को तोड़ा नहीं गया है। लेकिन मंदिर के अवशेष पर मस्जिद का निर्माण हुआ था और मस्जिद के निर्माण में भी मंदिर के अवशेषों का इस्तेमाल हुआ था। हालांकि, मस्जिद का निर्माण बहुत बाद में हुआ। मस्जिद बनने से पहले लंबे समय तक हिंदू विवादित जमीन के हिस्से को भगवान राम का जन्मस्थान मानते रहे हैं।


3. जस्टिस धर्मवीर शर्मा- पूरा विवादित स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है। मुगल शासक बाबर द्वारा बनवाई गई विवादित इमारत का ढांचा इस्लामी कानून के खिलाफ थी और इस्लामी मूल्यों के अनुरूप नहीं थी।

इससे पहले प्रशासन और दोनों समुदाय फैसले के बाद 1992 में हुई हिंसा को दोहराए जाने को लेकर आशंकित थे। इसकि वजह से देश प्रधानमंत्री, मीडिया, राजनितिज्ञ और धार्मिक नेताओं ने बिना किसी हिंसा के ही शांति की अपील करनी शुरू कर दी।

यही वजह है कि कोर्ट के फैसले से असंतुष्ट सुन्नी वक्फ बोर्ड और हिन्दू महासभा ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का निर्णय किया है। सुन्नी वक्फ बोर्ड, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और रामजन्म भूमि न्यास ने हाई कोर्ट द्वारा एक-तिहाई जमीन के बंटवारे के फॉर्मूले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे। हालांकि बेंच ने तीन महीने तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया है ताकि असंतुष्ट पक्ष के पास पर्याप्त समय हो कि वह सुप्रीम कोर्ट में जा सके।

प्रतिक्रियाएं

1. वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने कहा, "हमें फैसला मंजूर नहीं है और फैसले के खिलाफ हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। हमारे पास हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने के उचित कारण मौजूद हैं।" उन्होंने कहा कि अदालत द्वारा तीन महीने तक पूर्व स्थिति बनाए रखने के निर्देश की वजह से हमारे पास पर्याप्त समय है इसलिए हमें सुप्रीम कोर्ट जाने की जल्दबाजी नहीं है। उन्होंने बताया कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की जल्द होने वाली बैठक के बाद वह सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर करेंगे।

2. लखनऊ की मुख्य ईदगाह के नायब इमाम और शहर के मशहूर इस्लामी सेमिनरी के प्रमुख मौलाना खालिद रशीद ने फैसले को आंशिक रूप निराशाजनक बताया।

3. शिया संप्रदाय के मौलाना कल्बे जवाद का भी कहना है कि इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि फैसले से किसी को तनाव में आने की जरूरत नहीं है, सभी लोग शांति बनाए रखें।

4. अखिल भारतीय हिंदु महासभा ने भी सुप्रीम कोर्ट जाने का निर्णय लिया है। उसका कहना है कि रामजन्मभूमि को तीन हिस्सों में नहीं बांटा जाना चाहिए। अयोध्या फैसले को संवेदनशील माना जा रहा है और इसीलिए पूरे देश भर में सुरक्षा का जबर्दस्त इंतजाम किए गए। देश में कही भी इस फैसले पर कोई जश्न या मातम नहीं मनाया जाएगा।

5. विश् हिंदू परिषद ने पहले ही यह कहा है कि जो दो अन् विवादित स्थलों (काशी और मथुरा) का स्वामित् भी उन्हें सौंप दिया जाए।

6. वरिष्ठ अधिवक्ता रविशंकर प्रसाद के मुताबिक तीन सदस्यीय पीठ के दो सदस्य, न्यायमूर्ति एस. यू. खान और न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने कहा है कि भूमि को तीन हिस्सों में बांट दिया जाना चाहिए। उनके मुताबिक विवादित स्थल पर तीन महीनों तक यथास्थिति बहाल रखी जाएगी।

7. प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने फैसले के बाद लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की। उन्होंने कहा कि लोगों को भारतीय संस्कृति की सर्वोच्च परंपरा के अनुसार सभी धर्मों एवं धार्मिक आस्थाओं के लिए आदर प्रदर्शित करना चाहिए।

8. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि इससे राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा। उन्होंने कहा, इस फैसले को विजय और पराजय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह सभी के लिए आवश्यक है कि पिछले कुछ वर्षों में जो कुछ कटुता और विषमता उत्पन्न हुई उसे भुलाकर सबको मिल-जुलकर स्नेह भाव से राम मंदिर के निर्माण में जुट जाना चाहिए। राम राष्ट्रीय आस्था और राष्ट्रीय पहचान है और पिछली बातों को भुलाकर राष्ट्रीय एकता को दर्शाने का यह अवसर है।

9. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि न्यायालय के फैसले से हिंदुओं के इस अधिकार की पुष्टि हुई है कि गर्भगृह पर एक भव्य राम मंदिर का निर्माण होना चाहिए। यह फैसला भगवान राम के जन्म स्थान पर भव्य राम मंदिर के निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा। उन्होंने कहा कि भाजपा मानती है कि इस फैसले से देश में राष्ट्रीय एकता के एक नए अध्याय और अंतर-सामुदायिक संबंधों के नए युग की शुरूआत होगी। भाजपा कृतज्ञ है कि देश ने अदालत के इस फैसले को परिपक्वता से स्वीकार किया है।


10. कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा," देश के सभी लोगों को न्यायपालिका में भरोसा रखना चाहिए। आज भी हमारी फिर यही अपील है कि सभी इस फैसले को स्वीकार करें।" द्विवेदी ने कहा, "इस निर्णय के आने के बाद किसी को भी इसकी अनुचित व्याख्या, अफवाहें और दुष्प्रचार नहीं करना चाहिए। हम देश के सभी नागरिकों से संयम बरतने और शांति बनाए रखने की अपील करते हैं। उम्मीद है कि देश में अमन का माहौल बरकरार रहेगा।"


11. उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अयोध्या मसले पर आए फैसले के बाद कहा कि क्रियान्वयन की सारी जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। अदालत के फैसले के मद्देनजर उन्होंने प्रदेश की जनता से साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने की भी अपील की। मायावती ने कहा, "अदालत द्वारा जो फैसला सुनाया गया है उसके क्रियान्वयन के लिए केंद्र सरकार बाध्य होगी।" उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि विवादित स्थल और उसके आसपास की 67 एकड़ जमीन केंद्र सरकार के अधिग्रहण में है। उसकी सुरक्षा से लेकर अन्य संबंधित जिम्मेदारी भी केंद्र की है।

उन्होंने कहा, "राज्य सरकार ने फैसला किया है कि इस फैसले पर क्रियान्वयन के संबंध में आज ही प्रधानमंत्री को एक पत्र प्रेषित किया जाएगा और उसमें कहा जाएगा कि केंद्र सरकार अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करे और इस संबंध में यथोचित कार्रवाई करे।" मायावती ने कहा, "समय रहते यदि केंद्र सरकार ने उचित कदम नहीं उठाया और राज्य में कानून व्यवस्था बिगड़ती है, तो इसके लिए केंद्र सरकार पूरी तरह से जिम्मेदार होगी।"

12. कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस ऑफ इंडिया (सीबीसीआई) ने फैसले को हिंदुओं मुसलमानों के लिए सुलह और सद्भभाव के पथ पर आगे बढ़ने का एक शुभ संकेत बताया।

13. सीबीसीआई के प्रवक्ता बाबू जोसेफ नेआईएएनएससे कहा, "हम उम्मीद करते हैं कि दोनों समुदायों के बीच शांति एवं सौहार्द कायम होगा और इससे इस समस्या का कोई अंतिम समाधान निकालने का रास्ता साफ होगा।"

14. इस मुकदमे के प्रमुख पक्षकार हाशिम अंसारी ने उच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि आगे क्या होगा यह वक्फ कमेटी तय करेगी।

15. उद्योग संगठन एसोचैम की अध्यक्ष स्वाति पीरामल ने कहा, 'उच्च न्यायालय के फैसले से सभी की जीत हुई है। कानूनी संभावनाएं खुली हैं, लेकिन हमें भरोसा है कि राष्ट्र विरोधी तत्व शांति और सांप्रदायिक सौहार्द को नुकसान नहीं पहुंचाएगा।

16. फिक्की के अध्यक्ष राजन भारती मित्तल ने कहा, 'बड़े स्तर पर हिंसा हुई तो आर्थिक वृद्घि, गरीबी उन्मूलन और वैश्वीकरण के प्रयास पिछड़ जाएंगे।

17. स्वतंत्र शेयर सलाहकार एस पी तुलस्यान ने कहा, 'नकारात्मक फैसले का डर खत्म हो गया है। सभी की भावनाएं काबू में रहीं।

18. के.आर. चोकसी शेयर्स ऐंड सिक्योरिटीज के प्रबंध निदेशक देवेन चोकसी ने कहा, 'फैसला तटस्थ लगता है। इससे शेयर बाजारों पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

19. विहिप महामंत्री प्रवीण तोगडिया ने कहा कि वक्फ बोर्ड को एक तिहाई भूमि देने के फैसले पर पहले अध्ययन किया जाएगा और फिर निर्णय लिया जाएगा। श्रीराम जन्मभूमि न्यास ने भी सुप्रीम कोर्ट जाने की घोषणा की है।

20. न्यास के अध्यक्ष महन्त नृत्य गोपालदास ने कहा कि हाईकोर्ट ने जमीन का जो हिस्सा मुसलमानों को देने की बात कही है उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। वैसे इस हिस्से को बातचीत से हासिल करने की कोशिश भी की जाएगी।

यह
विवाद 1885 से चला रहा है, जब महंत रघुवर दास ने पहली बार अंग्रेजों से राम चबूतरा (कथित बाबरी मस्जिद से लगा हुआ इलाका) पर मंदिर की स्थापना की अनुमति मांगी थी। इसके बाद 1949 में कुछ लोगों ने केंद्रीय गुंबद के नीचे रातों-रात मूर्तियां स्थापित कर दीं और पूजा शुरू कर दी। पूजा जारी रही, लेकिन बाद में इसके मालिकाना हक को लेकर निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने लड़ाई शुरू कर दी। वक्फ बोर्ड का दावा था कि यहां वास्तव में मस्जिद और कब्रिस्तान है।

उत्तर
प्रदेश की तत्कालिक कल्याण सिंह सरकार ने 10 अक्टूबर 1991 को विवादित परिसर के इर्दगिर्द 2.77 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया। वहीं, बाबरी ढांचा ढहाए जाने के बाद केंद्र की पी.वी. नरसिंह राव सरकार ने संसद की सहमति से परिसर के आसपास की करीब 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया था।

Tuesday, September 28, 2010

ईश्वर के नाम पर बौराए मनुष्य


प्रदीप उपाध्याय

क्या वास्तव में अयोध्या में राम का मंदिर या बाबर की मस्जिद हिंदू और मुसलमानों के बीच टकराव का कारण है? या यह एक ऐसा तवा है जिसपर हर राजनीतिक दल अपनी रोटी सेकने का मौका तलाशते हैं?

न जाने क्यों हर दल इस मुद्दे को सुलझाने के बजाए इसे और उलझाने की कोशिश ही करता दिखाई देता है। ये लोग दूर बैठकर अपनी रोटियों के लिए हिंदू और मुसलमानों की लाशों का सौदा करते हैं और हम जो भारत को सभ्यता का जनक एवं अपनी एकता व अखण्डता का दम भरते नहीं थकते हैं, बाबर और राम का नाम आते ही अपनी सभ्यता खो बैठते हैं।

अयोध्या में सदियों से चले आ रहे राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद के ऐतिहासिक विवाद के इस वर्तमान अध्याय की शुरूआत 22-23 दिसंबर 1949 को मस्जिद के अंदर चोरी-छिपे मूर्तियां रखने की घटना के साथ हुई थी।

प्रारम्भ में मुद्दा सिर्फ इतना था कि ये मूर्तियां मस्जिद के आँगन में स्थित राम चबूतरे पर वापस स्थापित की जाएं या वहीं उनकी पूजा अर्चना चलती रहे। लेकिन, 60 सालों के लंबे सफ़र में अदालत को यह तय करना है कि क्या विवादित मस्जिद कोई हिंदू मंदिर तोड़कर बनाई गई थी और क्या विवादित स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है?

साथ ही अदालत को यह भी सुनिश्चत करना होगा कि क्या विवादित इमारत एक मस्जिद थी, वह कब बनी और क्या उसे बाबर अथवा मीर बाक़ी ने बनवाया था?

फैसले में कुछ तकनीकी या क़ानूनी सवाल भी हैं। जैसे क्या जिन लोगों ने दावे दायर किए हैं, उन्हें इसका हक़ है? क्या उन्होंने उसके लिए ज़रुरी नोटिस वग़ैरह देने की औपचारिकताएँ पूरी की हैं और क्या ये दावे क़ानून के तहत निर्धारित समय सीमा के अंदर दाख़िल किए गए है?

इस मसले पर यह देखना दिलचस्प होगा कि इलाबाद उच्च न्यायालय करीब सवा सौ साल पहले 1885– 86 में अदालत के दिए गए फैसले को अभी भी लागू करता है या उसके फैसले को रद्द करती है।

उल्लेखनीय है कि उस समय हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़े ने मस्जिद से सटे राम चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था। इस मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने हिंदुओं के जरिए पवित्र समझे जाने वाले स्थान पर मस्जिद का निर्माण को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा था कि इतिहास में हुई गलती को साढ़े तीन सौ साल बाद ठीक नही किया जा सकता है।

अदालत ने निर्मोही अखाड़ा की याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि ऐसा होने पर यह वहां प्रतिदिन सांप्रदायिक झगड़ें और ख़ून- ख़राबा होगा।

इस मामले के समाधान के लिए सरकारों ने मध्यस्त बनकर अनेकों बार संबंधित पक्षों में बातचीत कराई, लेकिन इससे भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला जा सका।

इससे पहले वर्ष 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में अपनी राय देने से इन्कार कर दिया था।

मामलें की सुनवाई के दौरान अदालत में ज़ुबानी और दस्तावेज़ी सबूतों के अलावा पुरातात्विक खुदाई के बाद तैयार रिपोर्ट को भी बतौर सबूत शामिल किया गया है। इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से ये कहा गया है कि विवादित मस्जिद के नीचे की गई खुदाई में मंदिर जैसी एक विशाल इमारत, खम्भे, एक शिव मंदिर और कुछ मूर्तियों के अवशेष मिले हैं।

हालांकि, मुस्लिम पक्ष ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की इस रिपोर्ट पर कड़ी आपत्ति करते हुए उसे सबूतों में शामिल न करने की मांग कर रहा है। जबकि हिंदू पक्ष इस रिपोर्ट के अपने दावे की पुष्टि में प्रमाण मानते हैं।

अदालत में मुख्य रूप से चार मुक़दमे विचाराधीन हैं, तीन हिंदू पक्ष के और एक मुस्लिम पक्ष का। लेकिन वादी प्रतिवादी कुल मिलाकर मुक़दमे में लगभग तीस पक्षकार हैं।

इस मामले में सरकार भी पक्षकार है, लेकिन उसकी तरफ से कोई अलग से पैरवी नही हो रही है। सरकार की तरफ से शुरुआत में सिर्फ़ ये कहा गया था कि वह स्थान 22/ 23 दिसंबर 1949 तक मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है और इसी दिन मस्जिद में मूर्तियां रखने का मुकदमा भी पुलिस ने अपनी तरफ से कायम करवाया था, जिसके आधार पर मस्जिद कुर्क करके ताला लगा दिया गया था।

इसके बाद इमारत तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम की सुपुर्दगी में दे दी गई और उन्हें ही मूर्तियों की पूजा आदि की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई थी।

इस दौरान तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट केके नैयर पर आरोप लगाया गया है कि वे उन लोगों का साथ दे रहे थे, जिन्होंने मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखीं। इसीलिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के कहने के बावजूद मूर्तियां नहीं हटवाईं थी।

इसके बाद 16 जनवरी 1950 को हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता गोपाल सिंह विशारद ने सिविल कोर्ट में ये अर्ज़ी दायर की। इस अर्जी में उन्होंने कहा कि मूर्तियों को वहां से न हटाया जाए और एक राम भक्त के रूप में उन्हें वहाँ पूजा अर्चना की अनुमति दी जाए। जिसकी सुनाई करते हुए अदालत ने पूजा आदि के लिए रिसीवर की व्यवस्था बहाल कर दी।

इसके कुछ दिन बाद ही दिगंबर अखाड़ा के राम चंद्र दास परमहंस ने भी इस पर अपना दावा दायर किया, जो उन्होंने बाद में 1989 में वापस ले लिया।

1959 में ही हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने अदालत में तीसरा मुकदमा दर्ज कर कहा कि उस स्थान पर सदा से राम जन्म स्थान मंदिर था और वह निर्मोही अखाड़ा की संपत्ति है, इसलिए रिसीवर हटाकर इमारत उसे सौंप दी जाए।

निर्मोही अखाड़ा का तर्क है कि 1934 के दंगों के बाद से मुसलमानों ने डर के मारे वहां जाना छोड़ दिया था, और तब से वहां नमाज़ नहीं पढ़ी गई है। इसलिए हिंदुओं का दावा पुख्ता हो जाता है।

इसके दो साल बाद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमानों ने मिल कर चौथा मुक़दमा दायर किया। उन्होंने दावा किया कि बाबर ने 1528 में यह मस्जिद बनवाई थी और 22/ 23 दिसंबर, 1949 तक यह मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है। अत: इतने लंबे समय तक उनका कब्ज़ा रहा, इस लिए इस विवादित भूमि को मस्जिद घोषित कर उन्हें कब्जा दिलाया जाए।

मुस्लिमों का तर्क है कि निर्मोही अखाड़ा ने 1885 के अपने मुकदमे में केवल राम चबूतरे पर दावा किया था, न कि मस्जिद पर।

मुस्लिम पक्ष राम चबूतरे पर हिंदुओं के कब्जे और दावे को तो स्वीकार करता है, लेकिन मस्जिद पर हिंदूओं के दावे से सहमत नहीं है।

उन्होंने माना कि वर्तमान अयोध्या वही अयोध्या है जहां राम चन्द्र जी पैदा हुए, लेकिन बाबर ने जहाँ मस्जिद बनवाई, वह खाली जगह थी।

करीब चार दशक तक यह विवाद अयोध्या से लखनऊ तक सीमित रहा। लेकिन 1984 में राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से जन्म भूमि का ताला खोलने के लिए जबरदस्त अभियान चलाकर इसे राष्ट्रीय मंच पर ला दिया।

इस समिति के अध्यक्ष गोरक्ष पीठाधीश्वर हिंदू महासभा नेता महंथ अवैद्य नाथ ने और महामंत्री कांग्रेस नेता व उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना इसमें शामिल थे।

एक फऱवरी 1986 को एक स्थानीय वकील उमेश चंद्र पाण्डे की दरख़ास्त पर तत्कालीन ज़िला जज एम. पाण्डे ने विवादित परिसर का ताला खोलने का एकतरफा आदेश पारित कर दिया, जिसकी तीखी प्रतिक्रिया मुस्लिम समुदाय में हुई।

इस प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन हुआ और मुस्लिम समुदाय ने भी विश्व हिंदू परिषद की तरह आन्दोलन और संघर्ष का रास्ता अख़्तियार किया।

इस मामले में एक और नया मोड 1989 के आम चुनाव से पहले आया, जब विश्व हिंदू परिषद के एक नेता और रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने एक जुलाई को भगवान राम के मित्र के रूप में पांचवां दावा फ़ैज़ाबाद की अदालत में दायर किया।

इस दावे में उन्होंने ये तो स्वीकार किया कि 23 दिसंबर 1949 को राम चबूतरे की मूर्तियां मस्जिद के अंदर रखी गईं थी। साथ ही उन्होंने दावा किया कि जन्म स्थान और भगवान राम दोनों पूज्य हैं और वही इस संपत्ति के मालिक।

इस दावे में मुख्य रूप से इस बात जोर दिया गया है कि बादशाह बाबर ने एक पुराना राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई थी। अपने दावे के समर्थन में उन्होंने अनेक इतिहासकारों, सरकारी गज़ेटियर्स और पुरातात्विक साक्ष्यों का हवाला दिया।

साथ ही यह भी कहा गया कि राम जन्म भूमि न्यास इस स्थान पर एक विशाल मंदिर बनाना चाहता है। इस दावे में राम जन्म भूमि न्यास को भी प्रतिवादी बनाया गया। इस न्यास के मुख्य पदाधिकारी विश्व हिंदू परिषद् के अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल हैं।

इस प्रकार पहली बार विश्व हिंदू परिषद भी परोक्ष रूप से पक्षकार बना।

वहीं, 1989 में राजीव गांधी ने अपने चुनाव अभियान की शुरूआत राम राज्य की स्थापना के नारे के साथ फ़ैज़ाबाद में जनसभा में की। चुनाव से पहले ही विवादित मस्जिद के सामने क़रीब दो सौ फुट की दूरी पर विहिप ने राम मंदिर का शिलान्यास किया, जो कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय की नाराज़गी का कारण बना।

विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में शिलान्यास से पहले इस मामले में अदालत के आदेश को स्वीकार करने की बात कही थी। लेकिन अब वह संसद में कानून बनाकर मामले को हल करने की बात करती है, क्योंकि उसके मुताबिक़ अदालत आस्था के सवाल पर फ़ैसला नही कर सकती।

अदालत में निर्मोही अखाड़ा और विश्व हिंदू परिषद एक दूसरे के विरोधी हैं।

जगदगुरु स्वामी स्वरूपानंद की राम जन्म भूमि पुनरुद्धार समिति भी 1989 में इस मामले में प्रतिवादी बनी। उनका दावा है कि पूरे देश के सनातन हिंदुओं का प्रतिनिधित्व यही संस्था करती है। उसके तर्क निर्मोही अखाड़ा से मिलते जुलते हैं।

हिंदुओं की दो और संस्थाएं हिंदू महासभा और आर्य प्रादेशिक सभा भी प्रतिवादी के रूप में इस स्थान पर सदियों से राम मंदिर होने का दावा करती हैं।

इनके अलावा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने कई अन्य हिंदुओं को उनकी निजी हैसियत से भी प्रतिवादी बनाया हैं। इनमे हनुमान गढ़ी के धर्मदास प्रमुख हैं। धर्मदास और निर्मोही अखाड़ा की पुरानी लड़ाई है और वह विश्व हिंदू परिषद के करीब हैं।

निर्मोही अखाड़ा ने कई स्थानीय मुसलमानों को प्रतिवादी बनाया है। मुसलमानों की ओर से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड मुख्य दावेदार है। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने हाशिम अंसारी समेत कई स्थानीय मुसलमानों को अपने साथ पक्षकार बनाया है।

उसके अलावा जमीयत-ए-उलेमा हिंद, शिया वक़्फ़ बोर्ड, आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस संस्थागत रूप से प्रतिवादी हैं।

मुस्लिम पक्षों का सबका दावा लगभग एक जैसा है सिवा आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस के जिसने पहले यह कहा था कि अगर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात साबित हो जाए तो मुलिम अपना दावा छोड़ देंगे।

शुरू में इस मुक़दमे में कुल 23 प्लाट शामिल थे, जिनका रक़बा बहुत ज़्यादा था। लेकिन छह दिसंबर को विवादित मस्जिद ध्वस्त होने के बाद 1993 में केंद्र सरकार ने मामला हल करने और मंदिर मस्जिद दोनों बनवाने के लिए मस्जिद समेत 70 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित कर ली गई।

1994 में सुप्रीम कोर्ट ने जमीन अधिग्रहण क़ानून को वैध ठहराते हुए कहा कि हाईकोर्ट को अब केवल उस विवादित स्थल पर मालिकाना हक़ को तय करना है।

इसके बाद केवल आधा बिस्वा ज़मीन का मुकदमा बचा है। कहने को यह आधा बिस्वा जमीन का मामला है लेकिन करोड़ों हिंदुओं और मुसलमानों की भावनाएं अब इससे जुड़ गई हैं। साथ ही यह अदालत और समूची न्यायपालिका की प्रतिष्ठा से जुड गया है और अदालत के फ़ैसले को लागू कराना सरकार का दायित्व बन गया है।

और इस प्रकार यह मामला पूरे भारतीय समाज और संवैधानिक-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए एक चुनौती बन गया।

Saturday, September 25, 2010

पाकिस्तान का शब्दों का खेल


प्रदीप उपाध्याय

जम्मू-कश्मीर को मुद्दा बनाकर भारत पर अंतरराष्ट्रीय दबाब बनाने की नाकाम कोशिश के बाद पाकिस्तान कूटनीति का सहारा लेता नजर आ रहा है। अब वह सीधे तौर पर भारत को निशाना बनाने की बजाए उसके साथ शब्दों का खेल खेलने की कोशिशें कर रहा है। इसके तहत वह खुद उसके द्वारा पैदा किए गए कश्मीर के हिंसक माहौल को भी दक्षिण-एशिया के लिए एक नासूर बता रहा है।

इस रणनीति के जरिए वह कश्मीर को एक जटिल समस्या साबित करना चाहता है, ताकि वह भारत की सरज़मी को अपना नापाक मंसूबों के लिए इस्तेमाल कर सके।

इससे पहले पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह मेहमूद कुरैशी ने अमेरिका से कश्मीर मसले में हस्तक्षेप करने की मांग की थी। जिसे भारत ने सिरे से खारिज करते हुए कहा कि यह देश का अंदरूनी मामला है, जिसमें किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।

दरअसल, कश्मीर में अपनी पैठ बनाने के लिए अपनी दाल न गलती देख पाकिस्तान अब अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ को एक मौहरे के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता है।

यदि एशिया सोसाइटी में शुक्रवार को दिए कुरैशी के बयान पर गौर से ध्यान दे तो हमें ज्ञात होगा कि वह कितना धूर्त है। करैशी ने कहा था, ‘मुझे पता है कि भारत को तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है। हस्तक्षेप का मतलब शर्तें तय करना नहीं होता।उन्होंने कहा, ‘अमेरिका मार्ग प्रशस्त करने वाली भूमिका निभा सकता है। लेकिन अंतत: यह हमें तय करना है कि कश्मीरी क्या चाहते हैं।

इस बयान के शब्दों को देखे तो इनसे ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के तेवरों में नरमी आयी है। लेकिन जब हम इन शब्दों के अर्थ को समझने की कोशिश करेंगे तो हमें पता चलेगा कि वह किस तरह से कश्मीर में अपनी भूमिका तय करने की कोशिश कर रहा है।

कुरैशी के इस बयान से एक दिन पहले पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया कि कश्मीर विवाद का तब तक हल नहीं हो सकता जब तक भारत उसे अपना अटूट हिस्सा मानना बंद न कर दे। इससे आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के कश्मीर के साथ हमदर्दी में क्या चाल छिपी हुई है।

इसका जबाब देते हुए भारतीय विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने गुरूवार को कहा कि भारत को किसी भी प्रकार की सलाह या सुझाव देने से पहले पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से अपने अवैध कब्जे को हटाना चाहिए।

कृष्णा ने कहा कि भारत में लोकतंत्रिक सरकार है, जो देश के संविधान के अनुसार किसी भी समस्या को हल करने में समर्थ है। ऐसे में अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत पाकिस्तान को पहले अपने देश की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए उनका समाधान ढूँढना चाहिए।

इन दिनों न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की वार्षिक बैठक चल रही है और पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को भुनाने की कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता है।

इस विवाद की जड़ हमारे महान नेताओं की देन है। जिन्होंने अपने निजी हितों और संबंधों की खातिर एक ऐसे विवाद को जन्म दिया, जिसमें न जाने कितने मासूमों को अपनी जान गवानी पड़ी है।

दरअसल, 1947 में विभाजन के बाद जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने भारत या पाकिस्तान में शामिल होने की बजाए अपनी रियासत को आजाद रखने का फैसला लिया।

लेकिन राज्य के कुछ मुस्लिम नेताओं ने पाकिस्तान के सिथ हाथ मिला कर जम्मू-कश्मीर को इसमें विलय करने की योजना बनाई, जिसके तहत पाकिस्तान ने अक्टूबर की शुरूआत में जरूरी चीजों की सप्लाई रोक दी और 22 अक्टूबर को पाकिस्तानी सेना और कबायलियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया। इस स्थिति में राजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय कर मदद मांगी।

इस तरह जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हो गया और हमारी सेना ने कबायलियों और पाकिस्तानी सेना को राजौरी, पुंछ और कारगिल के पीछे तक धकेल दिया। लेकिन, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करते हुए कैबिनेट के विरोध के बावजूद इसे मुद्दा बनाकर संयुक्त राष्ट्र में ले गए।

जहां 13 अगस्त 1948 को संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव पारित कर जम्मू-कश्मीर के लोगों को आत्मनिर्णय का हक दिया, जिसे 5 जनवरी 1949 को एक प्रस्ताव के तहत इसे भारत या पाकिस्तान में विलय के हक में बदल दिया गया।

इस प्रस्ताव में जनमतसंग्रह के लिए जम्मू-कश्मीर में मौजूद पाक सेना व कबायलियों की वापसी अहम शर्त थी। लेकिन पाकिस्तान ने फौज हटाने की शर्त आज तक पूरी नहीं की है

ऐसी बात नहीं है कि हमें इस विवाद को हल करने के मौके नहीं मिले हैं।

1. 1947 में कश्मीर को बचाने के लिए पाकिस्तानी सेना व कबायलियों और भारतीय सेना के बीच 31 दिसंबर 1948 की रात 11:59 बजे तक युद्ध चला। प्रारम्भ में पाकिस्तान की सेना ने कई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। लेकिन नवंबर मध्य तक हमारी सेना सभी सेक्टरों पर हावी हो गई। सालभर के घेराव के बाद पुंछ छुड़ा लिया गया। गिलगित फोर्सेस को मात देकर कारगिल को भी छुड़ा लिया गयाहमारी सेना ने जोजिला में तो 1200 फीट की ऊंचाई पर टैंक ले जाकर नामुमकिन को भी मुमकिन कर दिखाया। इस युद्ध में पाकिस्तान की सेना भाग खड़ी हुई। यह युद्ध कुछ दिन और चलता तो पूरा कश्मीर हमारे पास होता। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तब तक इसे मुद्दा बनाकर संयुक्त राष्ट्र से हस्तक्षेप की गुहार लगा दी।

2. इसके बाद 1971 में बांग्लादेश आजाद कराने के दौरान हमारी सेना ने पाकिस्तान के 90 हजार से ज्यादा सैनिकों को बंदी बना लिया था। लेकिन सद्भावना के चक्कर में हमने बगैर कुछ हासिल किए शिमला समझौते के तहत कब्जे में आ पश्चिमी इलाकोंपाकिस्तान सैनिक को लौटा दिया। यदि हम चाहते तो इसके बदले पाकिस्तान को कश्मीर से हटने के लिए मजबूर कर सकते थे।

हमारे पास जम्मू-कश्मीर का लगभग 101400 वर्ग किमी भू-भाग और 22 जिलें आते है। वहीं पाकिस्तान ने 78114 वर्ग किमी भू-भाग में से 37250 वर्ग किमी को चीन को सौंप दिया।

कश्मीर में अलगाववादी नेताओं की बात की जाए तो सबसे पहले हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरवादी नेता सैयद अली शाह गिलानी का नाम आता है ये जनाब रहते तो भारत में लेकिन वफादारी पाकिस्तान की करते हैं। ये राज्य को पाकिस्तान में विलय के लिए संघर्षरत हैं। जबकि हुर्रियत अध्यक्ष व उदारवादी नेता मीरवाइज उमर फारूख इसे अलग राष्ट्र बनाने की मांग करते हैं।

राष्ट्रमंड़ल खेल या देशद्रोह


प्रदीप उपाध्याय

सुरेश कलमाड़ी और उसके सहयोगियों ने राष्ट्रमंड़ल खेलों के आयोजन में भी धांधली कर यह दिखा दिया है कि उनके लिए देश की प्रतिष्ठा या सम्मान की क्या अहमियत है। दरअसल इसमें उनकी कोई गलती नहीं है कि वे तो बिचारे शहीदों के कफनों तक का सौदा करने में पीछे नहीं हटते हैं।

ऐसे में जब उन्हें खेल के आयोजन में पैसे का समुंद्र दिखाई दिया तो वे देश की इज्जत को बेचने के लिए भी राजी हो गए। ऐसे लोग अपने फायदे के लिए अपनी घर की स्त्रियों को भी बाजार में खड़ा करने से भी परहेज नहीं करते हैं।

इन लोगों में स्वाभिमान नाम की एक भावना जो शायद हमारे नेताओं को छोड़कर अधिकत्तर भारतीय में पाई जाती हैं का आभाव होता है। ये लोग अपने बैंक के खातों में पैसे भरते वक्त ये भुल जाते है कि ये पैसे उन्होंने किसी की लाश से उठाए कफन को बेच कर कमाए है या देश की इज्जत को। इनके लिए पैसों की महक और बिना कफन के सड़ती लाशों से उठती दुर्गंध में कोई अंतर नहीं है।

इन लोगों को जब अपनी रोटियां को सेकने के लिए ईधन नहीं मिला है तो ये इंसानों की लाशों को बतौर ईधन के इस्तेमाल करते है। शायद यही कारण है कि ये लोग लाशों का सौदा करने के लिए हमेशा मौके की तलाश में रहते हैं।

यदि मैं एक आम भारतीय की भाषा में बोलु तो राष्ट्रमंडल खेलों का मेला नहीं है, बल्कि ये तो भ्रष्टाचार का महाकुंभ है। जहां एक ओर तो हर रोज भ्रष्टाचार में नए खुलासे हो रहे है, तो वहीं दूसरी ओर खेलों के शुरू होने से पहले ही आयोजन स्थलों की छतें टूट कर गिर रही हैं।

खेलों के 11 दिन पहले मुख्य आयोजन स्थल पर फुटऑवर ब्रिज के गिरने की खबर ने विश्व भर की मीडिया का ध्यान अपनी ओर खिच लिया। इतना ध्यान तो शायद खेलों के आयोजन पर भी नहीं दिया गया होगा। इसके बाद स्टेडियम की छत ही गिरने लगी है। इससे खेलों के सफल आयोजन के दावों में कितना दम है का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

अब ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि हमारी मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित और कलमाड़ी जी इस पर अपनी कोई सफाई न दे। अगर उनकी भाषा का इस्तेमाल करू तो वे इसके लिए भी बारिश और पाकिस्तान ही दोषी है।

इसका ताजा उदाहरण पिछलों दिनों दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद के पास विदेशी नागरिकों को निशाना बनाकर हुई गोलीबारी है। कहने को तो दिल्ली में सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त हैं और यहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता है। लेकिन जब यहां गोली बारी हुई तो वहां तैनात हमारे दिल्ली पुलिस के जवान न तो उनको पकड़ पाए और न ही एंकाउंटर कर पाए। उन्हें तो गोली चलाने के लिए भी अपने अधिकारी से आज्ञा मांगनी पड़ती है।

पिछले दिनों आई एक खबर के मुताबिक सेंथेटिक घास लगाने के लिए भी भ्रष्टाचार का सहारा लिया गया है। यहीं नहीं एक खबरों पर भरोसा किया जाए तो शीला दीक्षित ने मध्य प्रदेश में एक पांच सितारा होटल भी बनवाया है। लेकिन हमारा फिलहाल उनके होटल से कुछ लेना देना नहीं हैं, इसलिए हम इस मुद्दे को यहीं छोड़ देते है।

हम बात कर रहे है राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों और उनमें हुई अनियमितताओं व भ्रष्टाचार के नित नए खुलासों की। इसकी नैतिक और राजनीतिक जवाबदेही शीला दीक्षित और डॉ. मनमोहन सिंह की है। हमारे ये दोनों नेता अपनी सफाई में जांच का आश्वासन और कार्रवाई की बात करते हुए दिखाई देते हैं।

तो इधर कॉमनवेल्थ गेम में भ्रष्टाचार की गंगा के भागीरथ बने माननीय कलमाड़ी जी पर कालिख और दबाब को कम करने के लिए आयोजन समिति के संयुक्त महानिदेशक टीएस दरबारी और उप महानिदेशक डॉक्टर संजय महेंद्रू को बलि का बकरा बनाया गया। बताया गया कि इन दोनों का नाम इंग्लैंड की कंपनी से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले में भी सामने आये हैं।

भ्रष्टाचार की इस गंगा का वेग नहीं झेल पाने के बाद सरकार के निर्देश पर सीबीआई ने कॉमनवेल्थ गेम्स में सैंदर्यीकरण के नाम पर हुए भ्रष्टाचार के मामले में एमसीडी और एक प्राइवेट फर्म के मैनेजिंग डायरेक्टर के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। इसके साथ ही एमसीडी के अधिकारियों पर अपने पदों का गलत इस्तेमाल करने के भी आरोप लगाए गए हैं।

असल में किसी भी देश के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर के किसी भी आयोजन का मेजबान बनना कई मायनों में महत्त्वपूर्ण और बहुत हद तक आर्थिक रूप से फायदेमंद भी साबित होता है।

इसी लिए हमारे प्रधानमंत्री डा .मनमोहन सिंह ने 64वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को देश की प्रतिष्ठा से जोड़ते हुए सभी देशवासियों से अपील की थी कि वे इसे राष्ट्रीय त्योहार की तरह समझें, और इसे कामयाब बनाने में सहयोग करें।

साल 2003 में भारत को इन खेलों के आयोजन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में शायद ही कोई पहलू हो जिसकी समय सीमा को लेकर विवाद न उठा हो। यहां तक की खेलों के थीम सॉन्ग को जारी करने को लेकर भी यह दुविधा दिखी थी।

स्थिती यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की लगभग सभी बड़ी कंपनियां अपने वायदे के बावजूद इससे पीछे हट रही हैं। चाहे वो भारतीय रेल, सेंट्रल बैंक, एयर इंडिया, एनटीपीसी या निजी क्षेत्र की कंपनियां गोदरेज या हीरो होंडा ही क्यों न हो। सभी ने अब आयोजन समिति के सामने प्रायोजन से जुडी शर्तें लगानी शुरू कर दी हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने तो पहले से वादा किया हुआ 100 करोड़ रुपया भी देने से मना कर दिया है।

मेरे मानना है कि देश की प्रतिष्ठा से खिलवाड करने वाले इन महान शख्सियतों पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाया जाना चाहिए। लेकिन मुझे पता है कि इन लोगों का कुछ नहीं होगा और इनकी अगली चार नस्लें भी भ्रष्टाचार से कमाए पैसों का आनन्द लेती रहेंगी।