Thursday, August 26, 2010

हम भारत-चीन युद्घ संबंधी दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं कर सकते क्योंकि...


प्रदीप उपाध्याय

भारत सरकार सूचना के अधिकार को आम आदमी के हाथ में एक सशक्त हथियार तो बताती है, लेकिन उस हथियार की जद से खुद को बचाने के लिए वह राष्ट्र हितों की दुहाई देती नजर आती है।

वर्ष 1962 में भारत पर हुए चीनी आक्रमण से संबंधित सरकारी दस्तावेजों को सार्वजनिक करने के संबंध में सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए एक सवाल का जबाब देते हुए मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) वजाहत हबीबुल्ला कहते है कि सूचना के अधिकार या किसी अन्य कानून के तहत इन दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है। क्योंकि इनके सार्वजनिक होने से दोनों देशों के बीच सीमा विवाद पर जारी वार्ता प्रभावित होगी।

हबीबुल्ला के मुताबिक इस वर्गीकृत रिपोर्ट के कुछ अंश राष्ट्रीय हित में नहीं हैं। इसमें भारतीय सेना के शीर्ष अफसरों की अक्षमता का भी जिक्र किया गया है। वे अमेरिका और ब्रिटेन का हवाला देते हुए किसी युद्घ के 20 साल बाद उससे जुड़े दस्तावेजों को वर्गीकृत श्रेणी से हटाने की नीति है, लेकिन भारत में राष्ट्रीय हितों को देखने के बाद ही कोई भी फैसला किया जा सकता है।

दरअसल, वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने 'सूचना के अधिकार 2005' के अंतर्गत भारत-चीन युद्घ के दौरान भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह और पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच हुई वार्ता की जानकारी मांगी थी, जिसे सरकार ने नामंजूर कर दिया था। लेकिन अपना दामन पाक साफ रखने के लिए सरकार ने एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन कर सारी जिम्मेदारी उसी पर छोड़ दी।

चालीस साल पहले हुए इस युद्ध में चीन ने भारत के साथ जो विश्वासघात किया था। उसके जख्म शायद ही कभी भर पाएंगे। इस युद्ध में चीन ने हमारे 90,000 वर्ग किलोमीटर भू-भाग पर कब्जा कर लिया है। इसके बावजूद भारत ने काफी हद तक चीन के साथ अपने रिश्तें की मरम्मत की है।

इस युद्ध ने वर्तमान भारत सरकार की गांधीवादी विचारधारा और हिंदी-चीनी भाई के नारों की धज्जियां उड़ा कर रखा दी थी। जिसकी वजह से इस युद्ध में जान-बूझ कर सैकड़ों सैनिकों के प्राणों की आहूति दी गई।

तत्कालिक सरकार का प्रतिनिधित्व देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे, जबकि कृष्ण मेनन रक्षा मंत्री और लेफ्टिनेंट जनरल बी एन कौल पूर्वी सीमा पर सेना के प्रभारी के पद पर कार्यरत थे।

हमारे देश के जवान कभी भी जान देने से पीछे नहीं हटते हैं, लेकिन यह हमारे देश की दुर्भाग्यपूर्ण विड़बना है कि हमारी सरकार अपने दाग-दार दामन को छिपाने के लिए अमर शहीदों की शहादत को गाली देने से भी परहेज नहीं करती।

Monday, August 23, 2010

भ्रष्टमंडल खेल बना राष्ट्र कि प्रतिष्ठा का सवाल


जैसे-जैसे राष्ट्रमंडल खेलों की घडियां नजदीक आती जा रही हैं, वैसे-वैसे खेल से जुडी परियोजनाओं के आयोजकों की परेशानी बढती जा रही हैं। अक्टूबर में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के संबंध में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का कहना है कि यह देश के लिए इज्जत का सवाल है। ऐसे में हम सब को एकजुट होकर इन खेलों को सफल बनाना चाहिए और इसे सफलतापूर्वक संचालित करने का प्रयास होना चाहिए। कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में गुरुवार को सोनिया गांधी ने साफ तौर पर कहा कि राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन से राष्ट्र की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है इससे किसी व्यक्ति या पार्टी का नहीं बल्कि पूरे देश का गौरव बढ़ेगा।

किसी भी देश के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर के किसी भी आयोजन का मेजबान बनना कई मायनों में महत्त्वपूर्ण और बहुत हद तक आर्थिक रूप से फायदेमंद भी साबित होता है। किंतु इसके साथ ही इस मुद्दे के कुछ अन्य बहुत से महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान देना भी जरूरी हो जाता है । जिस देश में अब भी सरकार बुनियादी समस्याओं से जूझ रही हो, अपराध, आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसी जाने कितनी ही मुसीबतें सामने मुंह बाए खड़ी हों, जिस देश को अभी अपने विकास के लिए जाने कितने ही मोर्चों पर संघर्ष करना बाकी हो, जिस देश को आज अपना धन और संसाधन खेल, मनोरंजन जैसे कार्यों से अधिक ज्यादा जरूरी कार्यों पर खर्च करने की जरूरत हो, वह विश्व में सिर्फ अपनी साख बढ़ाने के लिए ऐसे आयोजनों की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर हो तो आप इसे किस नजरिये से देखेगे।

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भी 64वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को देश की प्रतिष्ठा से जोड़ते हुए सभी देशवासियों से अपील की थी कि वे इसे राष्ट्रीय त्योहार की तरह समझें, और इसे कामयाब बनाने में सहयोग करें। तथा उम्मीद जताई कि आयोजन की सफलता से विश्व में यह संदेश जाएगा कि भारत आत्म विश्वास के साथ तेजी से प्रगति कर रहा है। प्रधानमंत्री ने अपनी इस टिप्पणी में न ही राष्ट्रमंडल खेलों में व्याप्त भ्रष्टाचार का जिक्र कही नहीं किया न ही उन विस्थापितों के बारे में।

ऐसे सवाल से केवल देश की प्रतिष्ठा का नहीं है, बल्कि इसके साथ देश के लोगों की बढ़ती परेशानियों का प्रश्न भी जुड़ा है। एक ओर बढ़ती महंगाई के चलते आम लोगों का जीना मुहाल है तो दूसरी ओर सरकार राष्ट्रमंडल खेल के बढ़ते बजट को पूरा करने के लिए हरसंभव उपाय कर रही है, लेकिन आयोजन स्थलों के निर्माण के नाम पर विस्थापित किए गए हज़ारों लोगों को पुनर्वासित करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है।

साल 2003 में भारत को इन खेलों के आयोजन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में शायद ही कोई पहलू हो जिसकी समय सीमा को लेकर विवाद न उठा हो और अब खेलों के थीम सॉन्ग को जारी करने को लेकर भी यह दुविधा दिखी है। बड़े उत्साह के साथ मीडियाकर्मी खेलों से जुड़ी एक सकारात्मक ख़बर की उम्मीद में आयोजन स्थल पहुँचे मगर शुरुआत के साथ ही कार्यक्रम की जैसे हवा निकल गई। आयोजन समिति के प्रमुख सुरेश कलमाड़ी ने घोषणा की कि थीम सॉन्ग दस दिन बाद जारी होगा।

वर्तमान स्थिती यहाँ तक आ पहुची है कि सार्वजनिक क्षेत्र की लगभग सभी बड़ी कंपनियाँ अपने वायदे से पीछे हटती नज़र आ रही हैं। चाहे वो भारतीय रेल, सेंट्रल बैंक, एयर इंडिया, एनटीपीसी या निजी क्षेत्र की कंपनियाँ गोदरेज या हीरो होंडा ही क्यों न हो। सभी ने अब आयोजन समिति के सामने प्रायोजन से जुडी शर्तें लगानी शुरू कर दी हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने तो पहले से वादा किया हुआ 100 करोड़ रुपया भी देने से मना कर दिया।

अब आयोजन समिति सरकार से मिले करोड़ों रूपए कैसे लौटाएगी, इस सवाल का जवाब फ़िलहाल आयोजन समिति के पास भी नहीं है। लगता है जैसे राष्ट्रमंडल खेलों पर से लोगों का विश्वास ही उठता जा रहा है। क्या सरकार का आश्वासन सही साबित होगा? क्या भ्रष्टाचार और विलंब की आशंकाओं से घिरे राष्ट्रमंडल खेलों का कार्य सही समय पर समाप्त हो पाएगा? इन सवालों का जवाब तो आने वाला समय ही बता पाएगा।

इनके लिए तो अब ऋषिकेश जोशी कि ये पंक्तियां सटीक बैठती है –

‘अरे मनहूसों तुमने क्या कर डाला
राष्ट्रमंडल खेलों में भी किया घोटाला
हमें तो कहते ही थे वे देश फ़टेहाल
देश की इज्जत का कुछ करते ख्याल

वह रखते यह आयोजन अपने पास
हमारी क्षमता में नहीं उनका विश्वास
बड़ी कोशिश से देश को मिली सौगात
पर तुम हो कि दिखा ही दी औकात’

Tuesday, August 17, 2010

बांग्लादेशी महिलाओं में बढ़ रही है आत्महत्या की प्रवृत्ति



प्रदीप उपाध्याय

ढ़ाका। बांग्लादेश में राजनीतिक स्तर पर भले ही संविधान को बदलकर देश में फैले भ्रष्टाचार और हिंसक घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए जद्दोजहद की जा रही हो, लेकिन देश में महिलाओं में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने में प्रशासन पूरी तरह नाकाम रहा है। आत्महत्या के पीछे प्रमुख कारण उनके साथ हो रही छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार बताया जा रहा है।

ताजा घटना देश के मुंशीगंज शहर की है। जहां एक 15 वर्षीय हसना रहमान सिंथिया ने तीन लड़कों द्वारा छेड़छाड़ किए जाने से दुखी होकर ख़ुदकुशी कर ली। इस तरह की घटनाओं के बाद सरकार द्वारा कोई सख्त कार्रवाई नहीं किए जाने की वजह से ऐसी घटनाओं में इजाफा हो रहा है।

मानवधिकार संगठन ऐनोशालीश केंद्र के मुताबिक़ देश के प्रमुख शहरों में महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न और छेड़छाड़ की घटनाएं होना आम बात है। संगठन के अनुसार इस साल अब तक देश भर में लगभग 20 लड़कियों और महिलाओं ने छेड़ख़ानी के कारण अपनी जान दे दी है।

हाल ही देश के फ़ेनी शहर में एक व्यक्ति की सिर्फ इसी बात पर हत्या कर दी गई थी, क्योंकि उसने तीन लड़कों के द्वारा अपनी बेटी के साथ छेड़छाड़ किए जाने का विरोध किया था। जबकि कई लड़कियां और महिलाएं इस अपमान और बेइज्ज़ती को बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं और इससे तंग आकर अपनी जान दे देती हैं।

उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष ढ़ाका उच्च न्यायालय ने शारीरिक हमला करने, अपशब्द कहने या मोबाइल फोन के ज़रिए गंदे संदेश भेजने पर पाबंदी लगा दी थी।

इस समस्या पर चिंता जताते हुए बांग्लादेश के शिक्षा मंत्री नूरुल इस्लाम नाहिद ने कहा कि सिर्फ़ अदालती आदेश इस समस्या का समाधान नहीं कर सकता है। उन्होंने कहा- '' ये सच है कि केवल उच्च न्यायालय का आदेश या क़ानून इसको नहीं रोक सकता चूंकि हम लोग हर जगह पुलिस नहीं तैनात कर सकते और हर आदमी की मदद नहीं कर सकते। इसलिए न्यायालय के आदेश का पालन करने और अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए हम लोग एक सामाजिक आंदोलन शुरु कर रहे हैं ताकि स्कूल जाने वाली लड़कियों की हिफ़ाज़त की जा सके।''

उन्होंने कहा कि कई बार सामाजिक कलंक के डर से माता-पिता अपनी बच्ची के साथ हो रही छेड़छाड़ को छिपा लेते हैं।

हालांकि देश के कुछ प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता शिक्षा मंत्री की इस बात से सहमत नहीं है। वे कहते हैं कि मीडिया अब इस तरह की घटनाओं को उठाने लगा है और पीड़ित लड़कियां भी सामने आकर अपनी आपबीती सुनाने लगीं हैं लेकिन इसके बावजूद सरकार इस तरह की घटनाओं को रोक पाने में नाकाम दिखाई देती है।

उनका कहना है कि देश का मौजूदा क़ानून छेड़छाड़ की घटनाओं को रोकने में असमर्थ है। इस समस्या से निपटने के लिए सख़्त क़ानून की ज़रुरत है।

साइबर आतंक फैला रही है पाकिस्तानी आर्मी


प्रदीप उपाध्याय

नई दिल्‍ली। पाकिस्‍तानी साइबर आर्मी ने मशहूर उद्योगपति एवं राज्‍यसभा सदस्‍य विजय माल्‍या की आधिकारिक बेवसाइट को हैक कर भारतीय साइबर वर्ल्‍ड को कड़ी चुनौती दी है। इसके लिए उसने सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर बाकायदा अपना अकाउंट खोला है।

15 अगस्त को हुए इस साइबर हमले में हैकरों ने माल्‍या की वेबसाइट हैक कर उस पर पाकिस्‍तानी झंडा लहराते हुए ‘खतरे का चिन्ह’ बनाया था और लिखा था 'फील द पाकिस्तान', ‘हम सो रहे हैं; मरे नहीं हैं।

इस दौरान पाकिस्तानी साइबर आर्मी ने भारतीय हैकर्स पर भी आरोप लगाया है कि वह लंबे समय से उसकी साइबर कम्‍युनिटी को नुकसान पहुंचा रहे हैं। उसने कहा कि हमने भारत से बदला लेने के लिए इस कार्य को अंजाम दिया है।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 से पाकिस्‍तान साइबर आर्मी ने ओएनजीसी समेत कई भारतीय वेबसाइटें हैक की हैं। भारत में कम्‍प्‍यूटर सुरक्षा पर नजर रखने वाले सरकारी संगठन कम्‍प्‍यूटर इमरजेंसी रिस्‍पॉन्‍स टीम का कहना है कि इस साल जनवरी से जून तक 4300 से अधिक भारतीय वेबसाइटें हैकर्स का शिकार हुई हैं।

इस कार्य में पाकिस्‍तान हैकर्स क्‍लब, जी फोर्स और पाकिस्‍तान साइबर आर्मी जैसे बड़े हैकर्स ग्रुप लगे हुए हैं। पाकिस्‍तान में हैकर्स ग्रुप को आईएसआई और सरकार का पूरा समर्थन हासिल है, जबकि भारत में ऐसा कुछ नहीं है। भारत में हैकिंग कानूनन अपराध है और इसमें कोई ढील नहीं दी जाती। देश के आईटी एक्‍ट के तहत हैकिंग के दोषी को तीन साल तक की कैद या 2 लाख रुपये तक जुर्माना या फिर दोनों की सजा हो सकती है।

हालांकि, पाकिस्‍तानी साइबर आर्मी से बढ़ते खतरे को देखते हुए भारत ने भी इससे निपटने की तैयारी शुरू कर दी है। सरकार इसके लिए खास आईटी इंफ्रास्ट्रक्‍चर और सॉफ्टवेयर विशेषज्ञों की टीम तैयार कर रही है। ये विशेषज्ञ दुश्‍मन देशों के कम्प्‍यूटरों की सुरक्षा में सेंध लगा कर जरूरी डेटा पर निगरानी रख सकेंगे।

हैकर्स से निपटने की रणनीति के तहत इस प्रस्‍ताव को उच्‍चस्‍तरीय बैठक में मंजूरी दी जा चुकी है। इससे संबंधित बैठक की अध्‍यक्षता राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने की थी और इसमें कई विभागों के बड़े अधिकारी शामिल हुए थे।

भारत सरकार ‘साइबर वार’ के खिलाफ लड़ाई में नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (एनटीआरओ) और डिफेंस इं‍टे‍लीजेंस एजेंसी (डीआईए) को भी शामिल करना चाहती है।

ध्यातव्य है कि एनटीआरओ तकनीक से जुड़ी खुफिया जानकारी जुटाती है, जबकि डीआईए सेना से संबंधित खुफिया तथा अन्‍य जानकारी एकत्रित करती है।

इधर, साइबर कानून के विशेषज्ञों की माने तो यह कानून तभी लागू होता है, अगर हैकिंग विदेश में किसी कंप्‍यूटर के जरिए की गई हो। उनका मानना है कि देशहित के लिहाज से आईटी कानून में संशोधन की जरूरत है।

उल्लेखनीय है कि चीन और पाकिस्‍तान भारत के खिलाफ ‘साइबर वार’ में काफी सक्रिय हैं। पाकिस्‍तानी हैकर्स रोज करीब 60 हजार वेबसाइटों को निशाना बनाते हैं। चीन ने बाकायदा चेंगडू में अपनी ‘साइबर आर्मी’ का मुख्‍यालय तक बना रखा है। पिछले दिनों चीन द्वारा भारतीय रक्षा विभाग के कंप्‍यूटर हैक करने की खबरें भी आई थीं। हालांकि चीन ने इससे इन्कार किया था। चीन पर पिछले साल भारतीय विदेश मंत्रालय के 600 कंप्‍यूटर हैक करने का आरोप लगा था।

Wednesday, August 11, 2010

विरोध या विद्रोह


प्रदीप उपाध्याय

आतंकवाद का मक्का कहा जाने वाला पाकिस्तान कश्मीर में हिंसा फैलाने के लिए आतंकवादियों को बड़ी मात्रा में सहायता उपलब्ध करा रहा है। वह चाहता है कि कश्मीर में एसे हालात पैदा किए जाए, जिससे इसे मुद्दा बनाकर संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाया जा सके।

घाटी में पिछले आठ सप्ताह से जारी पत्थरबाजी के इस खेल में पाकिस्तान अलगाववादियों के जरिए हिंसा को बढ़ाने के लिए धन की आपूर्ति कर रहा है। इस खेल में सुरक्षा बलों को निशाना बनाया जा रहा है और अब तक 1500 से ज्यादा जवान घायल हो चुके हैं।

हिंसा में मरने वालों की संख्या तो सरकार और मीडिया की सुर्खियां बनी रहती हैं। लेकिन हमारे देश की विचित्र विड़ंबना है कि न तो उन्हें जवानों के जख्म दिखाई देते और न ही उन परिवारों के आसू दिखाई देते हैं, जिनके सपूतों के दम पर वह सुरक्षित महसूस करते हैं।

पत्थरबाजी के इस खेल से घाटी में पैदा हुए तनाव पर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून तो चिंता जता चुके हैं। लेकिन खुद को कश्मीरियों का हमदर्द बताने वाली हुर्रियत इस हिंसा की आग में लगातार घी डालती दिखाई दी है। जिससे उसके हमदर्दी के दावे की सच्चाई का अंदाजा लगाया जा सकता है।

वहीं, राज्य में बिगड़ते हालातों को नियंत्रण में करने के लिए मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला के द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार कर पीडीपी अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती ने हिंसा का नेतृत्व करने की कोशिश की। लेकिन वहां अपनी दाल गलती न देख अब वह प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से सर्वदलीय बैठक बुलाए जाने की बात कह रही हैं।

यह एक ऐसी रणनीति है जिसमें प्रदर्शनकारी खुद तो हथियारों से परहेज करते हुए पत्थरों से वार करते हैं और ऐसी स्थिति पैदा कर देते है, जिससे विवश होकर सुरक्षा बलों को मजबूरन हथियारों का प्रयोग करना पड़ता है। ताकि वे विश्व समूदाय के समक्ष भारत की छवि को क्रूर दिखाते हुए सहानुभूति हासिल कर सके।

Tuesday, August 10, 2010

पुस्तक समीक्षा : साम्यवाद के सौ अपराध


लेखक - शंकर शरण

यूरोपिय समाज को मध्यकाल से आधुनिक काल में प्रवेश करने के लिए पुनर्जागरण, धार्मिक सुधारवाद और बुद्धिवाद के क्रम से गुजरना पड़ा था। इन का यूरोपिय समाज पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि कई मायने में उसका वास्तविक रूप ही परिवर्तित हो गया। इसी आधुनिक सभ्यता की कोख से उदारवाद एवं साम्यवाद का जन्म हुआ।

यद्यपि इन दोनों प्रमुख विचाधाराओं को परस्पर प्रतिद्वंदी के रूप में जाना जाता है। कुछ मूलभूत समानताओं के बावजूद इनके बीच कई मतभेद रहे हैं। व्यक्तिगत संपत्ति को उदारवाद जहां व्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखता है। वहीं, दुसरी तरफ साम्यवाद इसे सभी बुराईयों की जड़ के रूप में देखता है। उदारवादी उसके राजनीतिक पक्ष और समान अवसर के सिद्धांत पर जोर देते रहे हैं, जबकि साम्यवादी उसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष पर।

इन्ही वैचारिक पृष्ठभूमि के आस-पास लेखक शंकर शरण की पुस्तक (साम्यवाद के सौ अपराध) लिखी गई है। लेखक का मानना है कि साम्यवादी भारत में प्रशासनिक पदों पर प्रभुत्व के बजाय शिक्षा, मीडिया और वैचारिक स्रोतों पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। साम्यवाद पर लिखी गई इस पुस्तक को लेखक ने तीन भागों में बाटा है। पहले भाग में साम्यवादियों के सौ अपराधों का अक्षरश: विवरण प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के प्रमुख भाग में लेखक ने लिखा है कि भारतीय समाज के पश्चिमीकरण का जो प्रयास चल रहा है, उसमें साम्यवादी अगली पंक्ति में खड़े दिखते हैं। वे मानते है कि साम्यवादियों के अपराधों के सामने फांसीवादी भी निर्दोष से दिखने लगते हैं।

वहीं, दूसरे भाग में देश के प्रमुख साम्यवादी नेताओं के जीवन प्रसंगों के माध्यम से उनकी कथनी और करनी में फर्क को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। जिससे उनका दोहरा चरित्र उजागर होता है।

लेखक अपनी पुस्तक के उपसंहार में साम्यवादियों को भारतीय संस्कृति का शत्रु बताते हुए लिखा हैं कि वे किसी भी प्रकार से भारत के राज्य एवं समाज पर काबिज होना चाहते हैं। लेखक अपने विचारों के समर्थन में काफी रोचक एवं तथ्यपूर्ण तर्क देता है। पुस्तक में लेखक का मुख्य उद्देश्य देशवासियों को साम्यवादियों के उस चहरे परिचित कराना है, जिसमें वे देश की संस्कृति और सभ्यता को बचाने की बात तो कहते हैं, लेकिन पीछ से उसको तबाह करने की योजनाएं बनाते हैं। जो ना सिर्फ समाज के लिए घातक है बल्कि हमारे लोकतंत्र के लिए एक कलंक से कम नहीं है।

प्रदीप उपाध्याय

वोट बैंक की राजनीति या अवसरवादिता


प्रदीप उपाध्याय

रेल मंत्री ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। इसके लिए वे शहीदों की शहादतों का सौदा करने से भी पीछे नहीं हट रही हैं।

तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने सोमवार को माओवादियों के गढ़ लालगढ़ में एक विशाल रैली कर, नक्सलियों के खिलाफ जन सहयोग से चलाए जा रहे अभियान ‘ग्रीनहंट’ को इलाकों पर कब्जा करने का एक तरीका बताया। खुद को नक्सलियों की हमदर्द बताते हुए ममता ने कहा कि किसी भी समस्या से निपटने के लिए बंदूक कोई विकल्प नहीं है। शांति का पैगाम दे रही ममता शायद अपने उस बयान को भूल गई है जो उन्होंने पिछले दिनों दंतेवाड़ा में शहीद हुए 76 सैनिकों के संदर्भ में दिया था। जिसमें उन्होंने नक्सली समस्या से निपटने के लिए केंद्र से ठोस रणनीति बनाकर कार्रवाही की बात कही थी।

ममता के द्वारा रैली में दिया गया यह बयान उनकी वोट बैंक की राजनीति या अवसरवादिता के सिद्धांत को दर्शाता है। यहां तक कि ममता रैली के माध्यम से नक्सली वोट बैंक हथियाने के लिए नक्सली नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद को शहीद का दर्जा देने और इलाकों से सुरक्षा बलों को हटाने की वकालत करती नजर आयी।

सियासत के खेल में कांग्रेस और माकपा को मात देने के लिए ममता नए दाव-पेंच चल रहीं हैं। जहां एक तरफ उन्होंने नक्सली समस्या से निपटने के लिए केंद्र में सत्तासीन कांग्रेसनीत सरकार की नीतियों को भेद-भाव पूर्ण बताया। वहीं दूसरी तरफ माकपा पर निशाना साधते हुए उसे लालगढ़ में हुई हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया।

गौरतलब है कि ममता की इस रैली को माओवादियों के शीर्ष संगठन पीपुल्स कमेटी ऑफ पुलिस एट्रोसिटीज (पीसीपीए) का खुला समर्थन मिल रहा है। यह वही संगठन है जो राज्य में पिछलें दिनों हुई ज्ञानेश्वरी रेल दुर्घटना के लिए दोषी पाया गया था और इसके कई नेताओं को इस संबंध में गिरफ्तार भी किया गया था। इस हादसे में 150 से अधिक बेगुनाह लोग मौत के मुहं में समा गये थे।

वहीं, नक्सल समस्या के संदर्भ में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नक्सली हिंसा को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी बाधा बताया है और केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम का कहना है कि नक्सली हिंसा का समर्थन करने वाले लोग भी इस हिंसा के लिए जिम्मेदार है। ऐसे में वर्तमान केंद्र की यूपीए सरकार में महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन रेल मंत्री ममता बनर्जी का यह सियासी बयान यूपीए में नक्सल समस्या पर गहरा रहे आंतरिक मतभेदों को उजागर कर रहा है।