Tuesday, September 28, 2010

ईश्वर के नाम पर बौराए मनुष्य


प्रदीप उपाध्याय

क्या वास्तव में अयोध्या में राम का मंदिर या बाबर की मस्जिद हिंदू और मुसलमानों के बीच टकराव का कारण है? या यह एक ऐसा तवा है जिसपर हर राजनीतिक दल अपनी रोटी सेकने का मौका तलाशते हैं?

न जाने क्यों हर दल इस मुद्दे को सुलझाने के बजाए इसे और उलझाने की कोशिश ही करता दिखाई देता है। ये लोग दूर बैठकर अपनी रोटियों के लिए हिंदू और मुसलमानों की लाशों का सौदा करते हैं और हम जो भारत को सभ्यता का जनक एवं अपनी एकता व अखण्डता का दम भरते नहीं थकते हैं, बाबर और राम का नाम आते ही अपनी सभ्यता खो बैठते हैं।

अयोध्या में सदियों से चले आ रहे राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद के ऐतिहासिक विवाद के इस वर्तमान अध्याय की शुरूआत 22-23 दिसंबर 1949 को मस्जिद के अंदर चोरी-छिपे मूर्तियां रखने की घटना के साथ हुई थी।

प्रारम्भ में मुद्दा सिर्फ इतना था कि ये मूर्तियां मस्जिद के आँगन में स्थित राम चबूतरे पर वापस स्थापित की जाएं या वहीं उनकी पूजा अर्चना चलती रहे। लेकिन, 60 सालों के लंबे सफ़र में अदालत को यह तय करना है कि क्या विवादित मस्जिद कोई हिंदू मंदिर तोड़कर बनाई गई थी और क्या विवादित स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है?

साथ ही अदालत को यह भी सुनिश्चत करना होगा कि क्या विवादित इमारत एक मस्जिद थी, वह कब बनी और क्या उसे बाबर अथवा मीर बाक़ी ने बनवाया था?

फैसले में कुछ तकनीकी या क़ानूनी सवाल भी हैं। जैसे क्या जिन लोगों ने दावे दायर किए हैं, उन्हें इसका हक़ है? क्या उन्होंने उसके लिए ज़रुरी नोटिस वग़ैरह देने की औपचारिकताएँ पूरी की हैं और क्या ये दावे क़ानून के तहत निर्धारित समय सीमा के अंदर दाख़िल किए गए है?

इस मसले पर यह देखना दिलचस्प होगा कि इलाबाद उच्च न्यायालय करीब सवा सौ साल पहले 1885– 86 में अदालत के दिए गए फैसले को अभी भी लागू करता है या उसके फैसले को रद्द करती है।

उल्लेखनीय है कि उस समय हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़े ने मस्जिद से सटे राम चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था। इस मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने हिंदुओं के जरिए पवित्र समझे जाने वाले स्थान पर मस्जिद का निर्माण को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा था कि इतिहास में हुई गलती को साढ़े तीन सौ साल बाद ठीक नही किया जा सकता है।

अदालत ने निर्मोही अखाड़ा की याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि ऐसा होने पर यह वहां प्रतिदिन सांप्रदायिक झगड़ें और ख़ून- ख़राबा होगा।

इस मामले के समाधान के लिए सरकारों ने मध्यस्त बनकर अनेकों बार संबंधित पक्षों में बातचीत कराई, लेकिन इससे भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला जा सका।

इससे पहले वर्ष 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में अपनी राय देने से इन्कार कर दिया था।

मामलें की सुनवाई के दौरान अदालत में ज़ुबानी और दस्तावेज़ी सबूतों के अलावा पुरातात्विक खुदाई के बाद तैयार रिपोर्ट को भी बतौर सबूत शामिल किया गया है। इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से ये कहा गया है कि विवादित मस्जिद के नीचे की गई खुदाई में मंदिर जैसी एक विशाल इमारत, खम्भे, एक शिव मंदिर और कुछ मूर्तियों के अवशेष मिले हैं।

हालांकि, मुस्लिम पक्ष ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की इस रिपोर्ट पर कड़ी आपत्ति करते हुए उसे सबूतों में शामिल न करने की मांग कर रहा है। जबकि हिंदू पक्ष इस रिपोर्ट के अपने दावे की पुष्टि में प्रमाण मानते हैं।

अदालत में मुख्य रूप से चार मुक़दमे विचाराधीन हैं, तीन हिंदू पक्ष के और एक मुस्लिम पक्ष का। लेकिन वादी प्रतिवादी कुल मिलाकर मुक़दमे में लगभग तीस पक्षकार हैं।

इस मामले में सरकार भी पक्षकार है, लेकिन उसकी तरफ से कोई अलग से पैरवी नही हो रही है। सरकार की तरफ से शुरुआत में सिर्फ़ ये कहा गया था कि वह स्थान 22/ 23 दिसंबर 1949 तक मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है और इसी दिन मस्जिद में मूर्तियां रखने का मुकदमा भी पुलिस ने अपनी तरफ से कायम करवाया था, जिसके आधार पर मस्जिद कुर्क करके ताला लगा दिया गया था।

इसके बाद इमारत तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम की सुपुर्दगी में दे दी गई और उन्हें ही मूर्तियों की पूजा आदि की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई थी।

इस दौरान तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट केके नैयर पर आरोप लगाया गया है कि वे उन लोगों का साथ दे रहे थे, जिन्होंने मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखीं। इसीलिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के कहने के बावजूद मूर्तियां नहीं हटवाईं थी।

इसके बाद 16 जनवरी 1950 को हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता गोपाल सिंह विशारद ने सिविल कोर्ट में ये अर्ज़ी दायर की। इस अर्जी में उन्होंने कहा कि मूर्तियों को वहां से न हटाया जाए और एक राम भक्त के रूप में उन्हें वहाँ पूजा अर्चना की अनुमति दी जाए। जिसकी सुनाई करते हुए अदालत ने पूजा आदि के लिए रिसीवर की व्यवस्था बहाल कर दी।

इसके कुछ दिन बाद ही दिगंबर अखाड़ा के राम चंद्र दास परमहंस ने भी इस पर अपना दावा दायर किया, जो उन्होंने बाद में 1989 में वापस ले लिया।

1959 में ही हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने अदालत में तीसरा मुकदमा दर्ज कर कहा कि उस स्थान पर सदा से राम जन्म स्थान मंदिर था और वह निर्मोही अखाड़ा की संपत्ति है, इसलिए रिसीवर हटाकर इमारत उसे सौंप दी जाए।

निर्मोही अखाड़ा का तर्क है कि 1934 के दंगों के बाद से मुसलमानों ने डर के मारे वहां जाना छोड़ दिया था, और तब से वहां नमाज़ नहीं पढ़ी गई है। इसलिए हिंदुओं का दावा पुख्ता हो जाता है।

इसके दो साल बाद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमानों ने मिल कर चौथा मुक़दमा दायर किया। उन्होंने दावा किया कि बाबर ने 1528 में यह मस्जिद बनवाई थी और 22/ 23 दिसंबर, 1949 तक यह मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है। अत: इतने लंबे समय तक उनका कब्ज़ा रहा, इस लिए इस विवादित भूमि को मस्जिद घोषित कर उन्हें कब्जा दिलाया जाए।

मुस्लिमों का तर्क है कि निर्मोही अखाड़ा ने 1885 के अपने मुकदमे में केवल राम चबूतरे पर दावा किया था, न कि मस्जिद पर।

मुस्लिम पक्ष राम चबूतरे पर हिंदुओं के कब्जे और दावे को तो स्वीकार करता है, लेकिन मस्जिद पर हिंदूओं के दावे से सहमत नहीं है।

उन्होंने माना कि वर्तमान अयोध्या वही अयोध्या है जहां राम चन्द्र जी पैदा हुए, लेकिन बाबर ने जहाँ मस्जिद बनवाई, वह खाली जगह थी।

करीब चार दशक तक यह विवाद अयोध्या से लखनऊ तक सीमित रहा। लेकिन 1984 में राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से जन्म भूमि का ताला खोलने के लिए जबरदस्त अभियान चलाकर इसे राष्ट्रीय मंच पर ला दिया।

इस समिति के अध्यक्ष गोरक्ष पीठाधीश्वर हिंदू महासभा नेता महंथ अवैद्य नाथ ने और महामंत्री कांग्रेस नेता व उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना इसमें शामिल थे।

एक फऱवरी 1986 को एक स्थानीय वकील उमेश चंद्र पाण्डे की दरख़ास्त पर तत्कालीन ज़िला जज एम. पाण्डे ने विवादित परिसर का ताला खोलने का एकतरफा आदेश पारित कर दिया, जिसकी तीखी प्रतिक्रिया मुस्लिम समुदाय में हुई।

इस प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन हुआ और मुस्लिम समुदाय ने भी विश्व हिंदू परिषद की तरह आन्दोलन और संघर्ष का रास्ता अख़्तियार किया।

इस मामले में एक और नया मोड 1989 के आम चुनाव से पहले आया, जब विश्व हिंदू परिषद के एक नेता और रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने एक जुलाई को भगवान राम के मित्र के रूप में पांचवां दावा फ़ैज़ाबाद की अदालत में दायर किया।

इस दावे में उन्होंने ये तो स्वीकार किया कि 23 दिसंबर 1949 को राम चबूतरे की मूर्तियां मस्जिद के अंदर रखी गईं थी। साथ ही उन्होंने दावा किया कि जन्म स्थान और भगवान राम दोनों पूज्य हैं और वही इस संपत्ति के मालिक।

इस दावे में मुख्य रूप से इस बात जोर दिया गया है कि बादशाह बाबर ने एक पुराना राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई थी। अपने दावे के समर्थन में उन्होंने अनेक इतिहासकारों, सरकारी गज़ेटियर्स और पुरातात्विक साक्ष्यों का हवाला दिया।

साथ ही यह भी कहा गया कि राम जन्म भूमि न्यास इस स्थान पर एक विशाल मंदिर बनाना चाहता है। इस दावे में राम जन्म भूमि न्यास को भी प्रतिवादी बनाया गया। इस न्यास के मुख्य पदाधिकारी विश्व हिंदू परिषद् के अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल हैं।

इस प्रकार पहली बार विश्व हिंदू परिषद भी परोक्ष रूप से पक्षकार बना।

वहीं, 1989 में राजीव गांधी ने अपने चुनाव अभियान की शुरूआत राम राज्य की स्थापना के नारे के साथ फ़ैज़ाबाद में जनसभा में की। चुनाव से पहले ही विवादित मस्जिद के सामने क़रीब दो सौ फुट की दूरी पर विहिप ने राम मंदिर का शिलान्यास किया, जो कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय की नाराज़गी का कारण बना।

विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में शिलान्यास से पहले इस मामले में अदालत के आदेश को स्वीकार करने की बात कही थी। लेकिन अब वह संसद में कानून बनाकर मामले को हल करने की बात करती है, क्योंकि उसके मुताबिक़ अदालत आस्था के सवाल पर फ़ैसला नही कर सकती।

अदालत में निर्मोही अखाड़ा और विश्व हिंदू परिषद एक दूसरे के विरोधी हैं।

जगदगुरु स्वामी स्वरूपानंद की राम जन्म भूमि पुनरुद्धार समिति भी 1989 में इस मामले में प्रतिवादी बनी। उनका दावा है कि पूरे देश के सनातन हिंदुओं का प्रतिनिधित्व यही संस्था करती है। उसके तर्क निर्मोही अखाड़ा से मिलते जुलते हैं।

हिंदुओं की दो और संस्थाएं हिंदू महासभा और आर्य प्रादेशिक सभा भी प्रतिवादी के रूप में इस स्थान पर सदियों से राम मंदिर होने का दावा करती हैं।

इनके अलावा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने कई अन्य हिंदुओं को उनकी निजी हैसियत से भी प्रतिवादी बनाया हैं। इनमे हनुमान गढ़ी के धर्मदास प्रमुख हैं। धर्मदास और निर्मोही अखाड़ा की पुरानी लड़ाई है और वह विश्व हिंदू परिषद के करीब हैं।

निर्मोही अखाड़ा ने कई स्थानीय मुसलमानों को प्रतिवादी बनाया है। मुसलमानों की ओर से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड मुख्य दावेदार है। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने हाशिम अंसारी समेत कई स्थानीय मुसलमानों को अपने साथ पक्षकार बनाया है।

उसके अलावा जमीयत-ए-उलेमा हिंद, शिया वक़्फ़ बोर्ड, आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस संस्थागत रूप से प्रतिवादी हैं।

मुस्लिम पक्षों का सबका दावा लगभग एक जैसा है सिवा आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस के जिसने पहले यह कहा था कि अगर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात साबित हो जाए तो मुलिम अपना दावा छोड़ देंगे।

शुरू में इस मुक़दमे में कुल 23 प्लाट शामिल थे, जिनका रक़बा बहुत ज़्यादा था। लेकिन छह दिसंबर को विवादित मस्जिद ध्वस्त होने के बाद 1993 में केंद्र सरकार ने मामला हल करने और मंदिर मस्जिद दोनों बनवाने के लिए मस्जिद समेत 70 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित कर ली गई।

1994 में सुप्रीम कोर्ट ने जमीन अधिग्रहण क़ानून को वैध ठहराते हुए कहा कि हाईकोर्ट को अब केवल उस विवादित स्थल पर मालिकाना हक़ को तय करना है।

इसके बाद केवल आधा बिस्वा ज़मीन का मुकदमा बचा है। कहने को यह आधा बिस्वा जमीन का मामला है लेकिन करोड़ों हिंदुओं और मुसलमानों की भावनाएं अब इससे जुड़ गई हैं। साथ ही यह अदालत और समूची न्यायपालिका की प्रतिष्ठा से जुड गया है और अदालत के फ़ैसले को लागू कराना सरकार का दायित्व बन गया है।

और इस प्रकार यह मामला पूरे भारतीय समाज और संवैधानिक-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए एक चुनौती बन गया।

Saturday, September 25, 2010

पाकिस्तान का शब्दों का खेल


प्रदीप उपाध्याय

जम्मू-कश्मीर को मुद्दा बनाकर भारत पर अंतरराष्ट्रीय दबाब बनाने की नाकाम कोशिश के बाद पाकिस्तान कूटनीति का सहारा लेता नजर आ रहा है। अब वह सीधे तौर पर भारत को निशाना बनाने की बजाए उसके साथ शब्दों का खेल खेलने की कोशिशें कर रहा है। इसके तहत वह खुद उसके द्वारा पैदा किए गए कश्मीर के हिंसक माहौल को भी दक्षिण-एशिया के लिए एक नासूर बता रहा है।

इस रणनीति के जरिए वह कश्मीर को एक जटिल समस्या साबित करना चाहता है, ताकि वह भारत की सरज़मी को अपना नापाक मंसूबों के लिए इस्तेमाल कर सके।

इससे पहले पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह मेहमूद कुरैशी ने अमेरिका से कश्मीर मसले में हस्तक्षेप करने की मांग की थी। जिसे भारत ने सिरे से खारिज करते हुए कहा कि यह देश का अंदरूनी मामला है, जिसमें किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।

दरअसल, कश्मीर में अपनी पैठ बनाने के लिए अपनी दाल न गलती देख पाकिस्तान अब अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ को एक मौहरे के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता है।

यदि एशिया सोसाइटी में शुक्रवार को दिए कुरैशी के बयान पर गौर से ध्यान दे तो हमें ज्ञात होगा कि वह कितना धूर्त है। करैशी ने कहा था, ‘मुझे पता है कि भारत को तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है। हस्तक्षेप का मतलब शर्तें तय करना नहीं होता।उन्होंने कहा, ‘अमेरिका मार्ग प्रशस्त करने वाली भूमिका निभा सकता है। लेकिन अंतत: यह हमें तय करना है कि कश्मीरी क्या चाहते हैं।

इस बयान के शब्दों को देखे तो इनसे ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के तेवरों में नरमी आयी है। लेकिन जब हम इन शब्दों के अर्थ को समझने की कोशिश करेंगे तो हमें पता चलेगा कि वह किस तरह से कश्मीर में अपनी भूमिका तय करने की कोशिश कर रहा है।

कुरैशी के इस बयान से एक दिन पहले पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया कि कश्मीर विवाद का तब तक हल नहीं हो सकता जब तक भारत उसे अपना अटूट हिस्सा मानना बंद न कर दे। इससे आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के कश्मीर के साथ हमदर्दी में क्या चाल छिपी हुई है।

इसका जबाब देते हुए भारतीय विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने गुरूवार को कहा कि भारत को किसी भी प्रकार की सलाह या सुझाव देने से पहले पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से अपने अवैध कब्जे को हटाना चाहिए।

कृष्णा ने कहा कि भारत में लोकतंत्रिक सरकार है, जो देश के संविधान के अनुसार किसी भी समस्या को हल करने में समर्थ है। ऐसे में अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत पाकिस्तान को पहले अपने देश की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए उनका समाधान ढूँढना चाहिए।

इन दिनों न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की वार्षिक बैठक चल रही है और पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को भुनाने की कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता है।

इस विवाद की जड़ हमारे महान नेताओं की देन है। जिन्होंने अपने निजी हितों और संबंधों की खातिर एक ऐसे विवाद को जन्म दिया, जिसमें न जाने कितने मासूमों को अपनी जान गवानी पड़ी है।

दरअसल, 1947 में विभाजन के बाद जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने भारत या पाकिस्तान में शामिल होने की बजाए अपनी रियासत को आजाद रखने का फैसला लिया।

लेकिन राज्य के कुछ मुस्लिम नेताओं ने पाकिस्तान के सिथ हाथ मिला कर जम्मू-कश्मीर को इसमें विलय करने की योजना बनाई, जिसके तहत पाकिस्तान ने अक्टूबर की शुरूआत में जरूरी चीजों की सप्लाई रोक दी और 22 अक्टूबर को पाकिस्तानी सेना और कबायलियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया। इस स्थिति में राजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय कर मदद मांगी।

इस तरह जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हो गया और हमारी सेना ने कबायलियों और पाकिस्तानी सेना को राजौरी, पुंछ और कारगिल के पीछे तक धकेल दिया। लेकिन, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करते हुए कैबिनेट के विरोध के बावजूद इसे मुद्दा बनाकर संयुक्त राष्ट्र में ले गए।

जहां 13 अगस्त 1948 को संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव पारित कर जम्मू-कश्मीर के लोगों को आत्मनिर्णय का हक दिया, जिसे 5 जनवरी 1949 को एक प्रस्ताव के तहत इसे भारत या पाकिस्तान में विलय के हक में बदल दिया गया।

इस प्रस्ताव में जनमतसंग्रह के लिए जम्मू-कश्मीर में मौजूद पाक सेना व कबायलियों की वापसी अहम शर्त थी। लेकिन पाकिस्तान ने फौज हटाने की शर्त आज तक पूरी नहीं की है

ऐसी बात नहीं है कि हमें इस विवाद को हल करने के मौके नहीं मिले हैं।

1. 1947 में कश्मीर को बचाने के लिए पाकिस्तानी सेना व कबायलियों और भारतीय सेना के बीच 31 दिसंबर 1948 की रात 11:59 बजे तक युद्ध चला। प्रारम्भ में पाकिस्तान की सेना ने कई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। लेकिन नवंबर मध्य तक हमारी सेना सभी सेक्टरों पर हावी हो गई। सालभर के घेराव के बाद पुंछ छुड़ा लिया गया। गिलगित फोर्सेस को मात देकर कारगिल को भी छुड़ा लिया गयाहमारी सेना ने जोजिला में तो 1200 फीट की ऊंचाई पर टैंक ले जाकर नामुमकिन को भी मुमकिन कर दिखाया। इस युद्ध में पाकिस्तान की सेना भाग खड़ी हुई। यह युद्ध कुछ दिन और चलता तो पूरा कश्मीर हमारे पास होता। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तब तक इसे मुद्दा बनाकर संयुक्त राष्ट्र से हस्तक्षेप की गुहार लगा दी।

2. इसके बाद 1971 में बांग्लादेश आजाद कराने के दौरान हमारी सेना ने पाकिस्तान के 90 हजार से ज्यादा सैनिकों को बंदी बना लिया था। लेकिन सद्भावना के चक्कर में हमने बगैर कुछ हासिल किए शिमला समझौते के तहत कब्जे में आ पश्चिमी इलाकोंपाकिस्तान सैनिक को लौटा दिया। यदि हम चाहते तो इसके बदले पाकिस्तान को कश्मीर से हटने के लिए मजबूर कर सकते थे।

हमारे पास जम्मू-कश्मीर का लगभग 101400 वर्ग किमी भू-भाग और 22 जिलें आते है। वहीं पाकिस्तान ने 78114 वर्ग किमी भू-भाग में से 37250 वर्ग किमी को चीन को सौंप दिया।

कश्मीर में अलगाववादी नेताओं की बात की जाए तो सबसे पहले हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरवादी नेता सैयद अली शाह गिलानी का नाम आता है ये जनाब रहते तो भारत में लेकिन वफादारी पाकिस्तान की करते हैं। ये राज्य को पाकिस्तान में विलय के लिए संघर्षरत हैं। जबकि हुर्रियत अध्यक्ष व उदारवादी नेता मीरवाइज उमर फारूख इसे अलग राष्ट्र बनाने की मांग करते हैं।

राष्ट्रमंड़ल खेल या देशद्रोह


प्रदीप उपाध्याय

सुरेश कलमाड़ी और उसके सहयोगियों ने राष्ट्रमंड़ल खेलों के आयोजन में भी धांधली कर यह दिखा दिया है कि उनके लिए देश की प्रतिष्ठा या सम्मान की क्या अहमियत है। दरअसल इसमें उनकी कोई गलती नहीं है कि वे तो बिचारे शहीदों के कफनों तक का सौदा करने में पीछे नहीं हटते हैं।

ऐसे में जब उन्हें खेल के आयोजन में पैसे का समुंद्र दिखाई दिया तो वे देश की इज्जत को बेचने के लिए भी राजी हो गए। ऐसे लोग अपने फायदे के लिए अपनी घर की स्त्रियों को भी बाजार में खड़ा करने से भी परहेज नहीं करते हैं।

इन लोगों में स्वाभिमान नाम की एक भावना जो शायद हमारे नेताओं को छोड़कर अधिकत्तर भारतीय में पाई जाती हैं का आभाव होता है। ये लोग अपने बैंक के खातों में पैसे भरते वक्त ये भुल जाते है कि ये पैसे उन्होंने किसी की लाश से उठाए कफन को बेच कर कमाए है या देश की इज्जत को। इनके लिए पैसों की महक और बिना कफन के सड़ती लाशों से उठती दुर्गंध में कोई अंतर नहीं है।

इन लोगों को जब अपनी रोटियां को सेकने के लिए ईधन नहीं मिला है तो ये इंसानों की लाशों को बतौर ईधन के इस्तेमाल करते है। शायद यही कारण है कि ये लोग लाशों का सौदा करने के लिए हमेशा मौके की तलाश में रहते हैं।

यदि मैं एक आम भारतीय की भाषा में बोलु तो राष्ट्रमंडल खेलों का मेला नहीं है, बल्कि ये तो भ्रष्टाचार का महाकुंभ है। जहां एक ओर तो हर रोज भ्रष्टाचार में नए खुलासे हो रहे है, तो वहीं दूसरी ओर खेलों के शुरू होने से पहले ही आयोजन स्थलों की छतें टूट कर गिर रही हैं।

खेलों के 11 दिन पहले मुख्य आयोजन स्थल पर फुटऑवर ब्रिज के गिरने की खबर ने विश्व भर की मीडिया का ध्यान अपनी ओर खिच लिया। इतना ध्यान तो शायद खेलों के आयोजन पर भी नहीं दिया गया होगा। इसके बाद स्टेडियम की छत ही गिरने लगी है। इससे खेलों के सफल आयोजन के दावों में कितना दम है का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

अब ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि हमारी मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित और कलमाड़ी जी इस पर अपनी कोई सफाई न दे। अगर उनकी भाषा का इस्तेमाल करू तो वे इसके लिए भी बारिश और पाकिस्तान ही दोषी है।

इसका ताजा उदाहरण पिछलों दिनों दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद के पास विदेशी नागरिकों को निशाना बनाकर हुई गोलीबारी है। कहने को तो दिल्ली में सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त हैं और यहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता है। लेकिन जब यहां गोली बारी हुई तो वहां तैनात हमारे दिल्ली पुलिस के जवान न तो उनको पकड़ पाए और न ही एंकाउंटर कर पाए। उन्हें तो गोली चलाने के लिए भी अपने अधिकारी से आज्ञा मांगनी पड़ती है।

पिछले दिनों आई एक खबर के मुताबिक सेंथेटिक घास लगाने के लिए भी भ्रष्टाचार का सहारा लिया गया है। यहीं नहीं एक खबरों पर भरोसा किया जाए तो शीला दीक्षित ने मध्य प्रदेश में एक पांच सितारा होटल भी बनवाया है। लेकिन हमारा फिलहाल उनके होटल से कुछ लेना देना नहीं हैं, इसलिए हम इस मुद्दे को यहीं छोड़ देते है।

हम बात कर रहे है राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों और उनमें हुई अनियमितताओं व भ्रष्टाचार के नित नए खुलासों की। इसकी नैतिक और राजनीतिक जवाबदेही शीला दीक्षित और डॉ. मनमोहन सिंह की है। हमारे ये दोनों नेता अपनी सफाई में जांच का आश्वासन और कार्रवाई की बात करते हुए दिखाई देते हैं।

तो इधर कॉमनवेल्थ गेम में भ्रष्टाचार की गंगा के भागीरथ बने माननीय कलमाड़ी जी पर कालिख और दबाब को कम करने के लिए आयोजन समिति के संयुक्त महानिदेशक टीएस दरबारी और उप महानिदेशक डॉक्टर संजय महेंद्रू को बलि का बकरा बनाया गया। बताया गया कि इन दोनों का नाम इंग्लैंड की कंपनी से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले में भी सामने आये हैं।

भ्रष्टाचार की इस गंगा का वेग नहीं झेल पाने के बाद सरकार के निर्देश पर सीबीआई ने कॉमनवेल्थ गेम्स में सैंदर्यीकरण के नाम पर हुए भ्रष्टाचार के मामले में एमसीडी और एक प्राइवेट फर्म के मैनेजिंग डायरेक्टर के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। इसके साथ ही एमसीडी के अधिकारियों पर अपने पदों का गलत इस्तेमाल करने के भी आरोप लगाए गए हैं।

असल में किसी भी देश के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर के किसी भी आयोजन का मेजबान बनना कई मायनों में महत्त्वपूर्ण और बहुत हद तक आर्थिक रूप से फायदेमंद भी साबित होता है।

इसी लिए हमारे प्रधानमंत्री डा .मनमोहन सिंह ने 64वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को देश की प्रतिष्ठा से जोड़ते हुए सभी देशवासियों से अपील की थी कि वे इसे राष्ट्रीय त्योहार की तरह समझें, और इसे कामयाब बनाने में सहयोग करें।

साल 2003 में भारत को इन खेलों के आयोजन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में शायद ही कोई पहलू हो जिसकी समय सीमा को लेकर विवाद न उठा हो। यहां तक की खेलों के थीम सॉन्ग को जारी करने को लेकर भी यह दुविधा दिखी थी।

स्थिती यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की लगभग सभी बड़ी कंपनियां अपने वायदे के बावजूद इससे पीछे हट रही हैं। चाहे वो भारतीय रेल, सेंट्रल बैंक, एयर इंडिया, एनटीपीसी या निजी क्षेत्र की कंपनियां गोदरेज या हीरो होंडा ही क्यों न हो। सभी ने अब आयोजन समिति के सामने प्रायोजन से जुडी शर्तें लगानी शुरू कर दी हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने तो पहले से वादा किया हुआ 100 करोड़ रुपया भी देने से मना कर दिया है।

मेरे मानना है कि देश की प्रतिष्ठा से खिलवाड करने वाले इन महान शख्सियतों पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाया जाना चाहिए। लेकिन मुझे पता है कि इन लोगों का कुछ नहीं होगा और इनकी अगली चार नस्लें भी भ्रष्टाचार से कमाए पैसों का आनन्द लेती रहेंगी।

Monday, September 20, 2010

जम्मू-कश्मीर राग और हमदर्दी का पाकिस्तान सुर


प्रदीप उपाध्याय

खुद को कश्मीरी जनता का हमदर्द बताकर इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा के तौर पर संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने का दम भरने वाला पाकिस्तान शायद यह भुल गया है कि कश्मीर का कुछ हिस्सा उसके पास भी है। जिसे संभाल पाने में वह पूरी तरह से नाकाम साबित हो रहा है, जहां लोग आजादी की मांग कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि पीओके की जनता को मूलभूत जरूरतें मुहैया कराने में नाकाम रही पाकिस्तान सरकार क्या कश्मीरी जनता का ख्याल रख पाएगी।

दरअसल, पीओके में जारी विद्रोह पाकिस्तान सरकार की गले की हड्डी बना हुआ है, जिसके दमन में वह कोई कसर नहीं छोडना चाहती है। साथ ही वह इसे विश्व समुदाय की नजरों से भी बचाकर रखना चाहता है।

पीओके में पत्रकारों को जाने की अनुमति मिले तो मालूम चलेगा कि किस तरह यहां लोकतांत्रिक हितों और क्षेत्रीय स्वायत्तता के लिए चल रहे स्थानीय आंदोलनों का गला घोंटा जा रहा है। जिसकी वजह से वहां के लोग आजादी की मांग कर रहे हैं।

पीओके का गिलगिट और बालटिस्तान इलाका सेना के शासन में है। इस इलाके के लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ता यहां विधायिका और दूसरे लोकतांत्रिक संस्थानों की मांग कर रहे हैं। राज्य के संविधान के तहत मौजूद 56 मामलों में सिर्फ चार में ही यहां चुने हुए नेता अपने फैसले ले सकते हैं। बाकी मामलों पर कश्मीर काउंसिल ही निर्णय ले सकती है जो पाकिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा बनाई जाती है।

गिलगिट-बालटिस्तान का इलाका चीन, अमेरिका, भारत और पाकिस्तान के लिए अहम है। इसलिए इन देशों को साथ मिलकर काम करना चाहिए ताकि यह क्षेत्र नया 'तिब्बत' न बन जाए।

वहीं, पीओके पर अपनी पकड़ कमजोर होती देख पाकिस्तान ने इसका नियंत्रण चीन को सौंप दिया है। गिलगिट-बालटिस्तान इलाका रणनीतिक तौर पर बेहद अहम है जिस पर चीन की हमेशा से निगाह थी।

चीन ने भी गिलगिट-बालटिस्तान इलाके में अपने करीब 11 हजार जवान तैनात किए है। इस इलाके में अपनी पकड़ मजबूत करने के साथ ही चीन खाड़ी के देशों तक बेरोकटोक सड़क और रेल सम्पर्क बनाने की तैयारी में है।

दरअसल, चीन के तेल टैंकरों को खाड़ी के देशों तक पहुंचने में 16 से 25 दिनों का समय लगता है। लेकिन खाड़ी के देशों से सड़क और रेल मार्ग से जुड़ने ते बाद महज 48 घंटों में खाड़ी में मौजूद पाकिस्तानी नौसेना के बेस जैसे-ग्वादर, पसनी और ओरमारा तक साजो-समान पहुंचाएगा।

इसके लिए चीन के सैनिकों ने गिलगिट-बालटिस्तान में रेल ट्रैक का निर्माण और कराकोरम हाई-वे के विस्तार कार्य शुरू कर दिया है। यह हाई-वे चीन के सिन्कियांग सूबे को पाकिस्तान से जोड़ता है।

हालांकि चीन ने शुरूवात में इन खबरों से मुखरता रहा है। लेकिन पीओके में उसकी मौजूदगी की खबरों की जांच के संबंध में भारत के कड़े रूख को देखते हुए चीन ने सफाई देते हुए कहा कि चीनी सैनिक पाकिस्तान के बाढ़ प्रभावितों की मदद के लिए वहां तैनात है।

अमेरिका के दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ हैरिसन ने दावा किया है कि चीन ने इस इलाके में 22 सुरंगें भी बनवाई है, जिसे लेकर अभी भी रहस्य बना हुआ है। उनके मुताबिक पाकिस्तान के नागरिकों को भी इन सुरंगों के आस-पास जाने की मनाही है।

अगर खबरों पर यकीन किया जाए तो इन सुरंगों का इस्तेमाल गैस पाइपलाइन के अलावा मिसाइलों को छुपाने के लिए भी किया जाएगा। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पीओके पर पाकिस्तान का नियंत्रण है या चीन का।

भारत को महंगी पड़ सकती है चीन की अनदेखी


प्रदीप उपाध्याय

राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में चीन के खतरे की लगातार अनदेखी करना भारत को महंगा पड़ सकता है। चीन द्वारा वर्ष 1962 के प्रारम्भ में छिटपुट घुसपैठ से शुरू हुआ सिलसिला देखते ही देखते एक युद्ध में तब्दील हो गया और इसमें हमने अपने महत्त्वपूर्ण भू-भाग को खो दिया।

अब एक बार फिर चीन उसी रणनीति पर चलते हुए अरूणाचल के तवांग से लेकर कश्मीर में लेह तक घुसपैठ की लगातार कोशिशें कर रहा है। लेह की जिस पेगांग झील के 40 प्रतिशत हिस्से पर भारत का नियंत्रण था आज उसमें भी चीन पेट्रोलिंग कर रहा है। भारत के सिक्किम, अरुणाचल, लद्दाख पर भी चीन अपनी नजरें गड़ाए बैठा है।

भारत और चीन के बीच करीब 4,057 किलोमीटर लंबी सीमा है, सीमा पर सुरक्षाबलों की मुस्तैदी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चीनी सैनिक कई बार सीमा का उल्लघंन कर भारतीय सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाते दिखाई देते हैं। परिणाम स्वरूप 16 जून 2008 को चीनी सेना सिक्किम में काफी अंदर तक घुस आईं थीं। लेकिन वोटबैंक की राजनीति के चक्कर में लगे हमारे नेताओं ने इस संदर्भ में प्रकाशित खबरों को मीडिया द्वारा खड़ा किया गया एक हौव्वा बताकर अपनी कमजोरी को छिपाने की कोशिश की।

चीन और भारत के रिश्ते हमेशा नरम-गरम रहे हैं। वास्तव में चीन ने हमेशा अपने फायदे के लिए भारत का इस्तेमाल किया है। 1962 में हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे लगवाने वाला चीन आज भी भारत के साथ अपनी विश्वासघात की रणनीति पर कायम है। इसका ताजा उदाहरण कश्मीरी जनता को अलग से नत्थी वीजा देने और भारतीय सैन्य अधिकारी को बीजिंग यात्रा के लिए अनुमति देने से इंकार किया जाना है।

चीन ने 1962 में धोखे से किए युद्ध में भारत के करीब 38,000 स्क्वायर किलोमीटर भू-भाग पर कब्जा कर रखा है। यही नहीं उसने कश्मीर के 5180 स्क्वायर किलोमीटर के उस हिस्से को भी अपने नियंत्रण में ले रखा है, जो पाकिस्तान ने 1963 में उसे दिया था।

चीन ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में रणनीतिक लिहाज से महत्त्वपूर्ण गिलगिट-बालटिस्तान इलाके में अपने करीब 11 हजार जवान तैनात किए है। इस इलाके में अपनी पकड़ मजबूत करने के साथ ही चीन खाड़ी के देशों तक बेरोकटोक सड़क और रेल सम्पर्क बनाने की तैयारी में लगा है।

दरअसल, चीन के तेल टैंकरों को खाड़ी के देशों तक पहुंचने में 16 से 25 दिनों का समय लगता है। लेकिन खाड़ी के देशों से सड़क और रेल मार्ग से जुड़ने के बाद महज 48 घंटों में खाड़ी में मौजूद पाकिस्तानी नौसेना के बेस जैसे-ग्वादर, पसनी और ओरमारा तक साजो-समान पहुंचाएगा। इसके लिए पीएलए के सैनिकों ने गिलगिट-बालटिस्तान में रेल ट्रैक का निर्माण और कराकोरम हाई-वे के विस्तार का कार्य शुरू कर दिया है। यह हाई-वे चीन के सिन्कियांग सूबे को पाकिस्तान से जोड़ता है।

इससे पहले चीन ने समुंद्री क्षेत्र में अपनी पकड़ को मजबूत करने के उद्देश्य से बंगलादेश के चटगांव, पाकिस्तान के ग्वादर, अंडमान के पास कोको द्वीप और म्यांमार तक अपने नौसेना अडडे स्थापित कर लिए हैं। साथ ही भारत के उत्तर में हिमालयी और दक्षिण स्थित सागरीय सीमा सहित संपूर्ण सैन्य तंत्र पर चीन ने अभेद्य निगरानी तंत्र स्थापित कर लिए हैं।

हालांकि शुरूआत में तो चीन इन खबरों का खंडन करता ही दिखाई दिया। लेकिन पीओके में उसकी मौजूदगी की खबरों की जांच के संबंध में भारत के कड़े रूख को देखते हुए चीन ने सफाई देते हुए कहा कि चीनी सैनिक पाकिस्तान के बाढ़ प्रभावितों की मदद के लिए वहां तैनात हैं।

वहीं दूसरी तरफ, अमेरिका के दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ हैरिसन ने दावा किया है कि चीन ने इस इलाके में 22 सुरंगें भी बनवाई है, जिसे लेकर अभी भी रहस्य बना हुआ है। उनके मुताबिक पाकिस्तान के नागरिकों को भी इन सुरंगों के आस-पास जाने की मनाही है।

अगर खबरों की माने तो इन सुरंगों का इस्तेमाल गैस पाइपलाइन के अलावा मिसाइलों को छुपाने के लिए भी किया जाएगा।

चीन की खाड़ी देशों से करीब आने की कवायद के तहत यह रेल प्रोजेक्ट पहला कदम हो सकता है। यह प्रस्तावित रेल मार्ग चीन के काशघर से किर्गिस्तान, तजाकिस्तान होते हुए ईरान तक जाएगा। इसके निर्माण के साथ ही बीजिंग सीधे तेहरान से रेल मार्ग द्वारा जुड़ जाएगा। इस संबंध में चीन करीब 88 अरब रुपये की एक डील साइन करने जा रहा है। जिसके बाद चीन ईरान में रेल लाइन निर्माण का काम शुरू कर देगा। साथ ही बाद में इसे यूरोप से भी जोड़ने की योजना बनाई जा रही है।

खाड़ी देश खासकर ईरान अमेरिका का धुर विरोधी माना जाता है। चीन की पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान और तजाकिस्तान, किर्गिस्तान से करीबी अमेरिका और रूस के साथ-साथ भारत के लिए भी चिंता की वजह है।

चीन इस महत्वाकांक्षी योजना के तहत मध्य एशिया और मध्य पूर्व में अपनी पैठ बनाना चाहता है। साथ ही यह भी संभावना जताई जा रही है कि यह रेल लाइन बाद में ईरान, इराक और सीरिया को मिडल ईस्टर्न कॉरिडोर के तहत जोड़ सकती है।

हांलाकि मेरा मानना है कि 1962 की अपेक्षा हमारे देश की स्थिति काफी मजबूत है। आज हमारी अर्थव्यवस्था विश्व पटल पर तेजी से उभर रही है, ऐसे में चीन हमारे साथ सीधे लड़ाई नहीं करेगा। वह शीतयुद्ध की तरह ही हमे चारों ओर से घेरने की कोशिश कर रहा है। जैसे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ ने एक दूसरे को घेरने की रणनीति अपनाई थी।

उस दौरान समस्त विश्व दो भागों में विभाजित हो गया था। एक का प्रतिनिधित्व पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका कर रहा था, जबकि दूसरे का प्रतिनिधित्व समाजवादी सोवियत संघ कर रहा था। इन दोनों ने ही आमने-सामने की लड़ाई के बजाय कुटनीति का इस्तेमाल कर एक दूसरे को हानि पहुंचाने में लगे थे। यह संघर्ष द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से शुरू होकर 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही खत्म हुआ।

पाकिस्तान और अमेरिका में बढ़ती दरार



हाल ही में अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों में कड़वाहट नजर आने लगी है। दोनों देशों ने इसकी कोई अधिकारिक घोषणा तो नहीं की है, लेकिन इनके बीच के तनाव के लिए दो प्रमुख कारण बताए जा रहे है। इसकी एक वजह पाकिस्तान द्वारा तालिबान को समर्थन देने के अलावा चीन को खाड़ी के देशों तक पहुंचने में मदद करना है। जबकि दूसरी वजह अमेरिका द्वारा पीओके में हिंसक प्रदर्शनों मु्द्दे पर दिया गया बयान है जिसमें उसने कहा था कि गिलगिट-बालटिस्तान इलाके में विद्रोह से साफ है कि कश्मीर की स्वायत्तता के मुद्दे पर विचार करते समय पीओके पर भी विचार करना होगा।

चीन का अमेरिका पर निशाना



वहीं, चीन ने अमेरिका पर आरोप लगाया है कि वह भारत को चीन और पाकिस्तान के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है।

चीन का कहना है कि 'मिशन इराक' खत्म होने के बाद अमेरिका की निगाहें दक्षिण पूर्व एशिया, खास कर पाकिस्तान, चीन और भारत पर टिकी हैं। साथ ही वह चीन की बढ़ती ताकत और समृद्धि देख कर घबरा गया है और वह इसी घबराहट में चीन और पाकिस्तान की पक्की दोस्ती में दरार डालना चाहता है।