प्रदीप उपाध्याय
सत्ताजनित
भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक स्वतंत्र, पारदर्शी और विश्वसनीय संस्था की
जरूरत महसूस कर रहा है हमारा देश। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में जांच करने वाली
संस्थाएं नहीं है। संस्था तो है जैसे सीबीआई और विभिन्न मामलों की जांच के लिए
बनाई गई कमेटियां। लेकिन ये संस्था कितना काम करती है ये हमारी जनता से ज्यादा और
बेहतर कोई नहीं जानता। आज ये संस्थाएं न्याय के लिए कम और राजनीतिक स्वार्थों को
पूरा करने का काम ज्यादा कर रही हैं। जिसका उदाहरण हमे समय समय पर देखने को मिलाता
रहता है जैसे इन संस्थाओं द्वारा जांचे गए नाबरवाला कांड, शेयर घोटाला, चीनी घोटाला, यूरिया घोटाला, बोफांर्स तोप खरीद का घोटाला, 1999 में हुए कफन घोटाला और सबसे शर्मनाक
जिसमें देश की प्रतिष्ठा पर ही सवाल खडा करने वाले राष्ट्रमंडल खेल घोटाला। इन
सभी केसों में एक समानता है कि इन मामलों में आज तक भी किसी भी बडें राजनेता को
सजा न होना। अब ऐसे में सवाल खडा होता है कि क्या देश का कानून सभी को बराबरी का
दर्जा देता है? और सबसे बड़ा सवाल ये क्या आज ये संस्था आम लोगों को न्याय दिलाने
के लिए है या राजनेताओं की स्वार्थ पूर्ति का साधन मात्र ?
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