Tuesday, August 10, 2010

पुस्तक समीक्षा : साम्यवाद के सौ अपराध


लेखक - शंकर शरण

यूरोपिय समाज को मध्यकाल से आधुनिक काल में प्रवेश करने के लिए पुनर्जागरण, धार्मिक सुधारवाद और बुद्धिवाद के क्रम से गुजरना पड़ा था। इन का यूरोपिय समाज पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि कई मायने में उसका वास्तविक रूप ही परिवर्तित हो गया। इसी आधुनिक सभ्यता की कोख से उदारवाद एवं साम्यवाद का जन्म हुआ।

यद्यपि इन दोनों प्रमुख विचाधाराओं को परस्पर प्रतिद्वंदी के रूप में जाना जाता है। कुछ मूलभूत समानताओं के बावजूद इनके बीच कई मतभेद रहे हैं। व्यक्तिगत संपत्ति को उदारवाद जहां व्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखता है। वहीं, दुसरी तरफ साम्यवाद इसे सभी बुराईयों की जड़ के रूप में देखता है। उदारवादी उसके राजनीतिक पक्ष और समान अवसर के सिद्धांत पर जोर देते रहे हैं, जबकि साम्यवादी उसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष पर।

इन्ही वैचारिक पृष्ठभूमि के आस-पास लेखक शंकर शरण की पुस्तक (साम्यवाद के सौ अपराध) लिखी गई है। लेखक का मानना है कि साम्यवादी भारत में प्रशासनिक पदों पर प्रभुत्व के बजाय शिक्षा, मीडिया और वैचारिक स्रोतों पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। साम्यवाद पर लिखी गई इस पुस्तक को लेखक ने तीन भागों में बाटा है। पहले भाग में साम्यवादियों के सौ अपराधों का अक्षरश: विवरण प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के प्रमुख भाग में लेखक ने लिखा है कि भारतीय समाज के पश्चिमीकरण का जो प्रयास चल रहा है, उसमें साम्यवादी अगली पंक्ति में खड़े दिखते हैं। वे मानते है कि साम्यवादियों के अपराधों के सामने फांसीवादी भी निर्दोष से दिखने लगते हैं।

वहीं, दूसरे भाग में देश के प्रमुख साम्यवादी नेताओं के जीवन प्रसंगों के माध्यम से उनकी कथनी और करनी में फर्क को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। जिससे उनका दोहरा चरित्र उजागर होता है।

लेखक अपनी पुस्तक के उपसंहार में साम्यवादियों को भारतीय संस्कृति का शत्रु बताते हुए लिखा हैं कि वे किसी भी प्रकार से भारत के राज्य एवं समाज पर काबिज होना चाहते हैं। लेखक अपने विचारों के समर्थन में काफी रोचक एवं तथ्यपूर्ण तर्क देता है। पुस्तक में लेखक का मुख्य उद्देश्य देशवासियों को साम्यवादियों के उस चहरे परिचित कराना है, जिसमें वे देश की संस्कृति और सभ्यता को बचाने की बात तो कहते हैं, लेकिन पीछ से उसको तबाह करने की योजनाएं बनाते हैं। जो ना सिर्फ समाज के लिए घातक है बल्कि हमारे लोकतंत्र के लिए एक कलंक से कम नहीं है।

प्रदीप उपाध्याय

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