Tuesday, September 28, 2010

ईश्वर के नाम पर बौराए मनुष्य


प्रदीप उपाध्याय

क्या वास्तव में अयोध्या में राम का मंदिर या बाबर की मस्जिद हिंदू और मुसलमानों के बीच टकराव का कारण है? या यह एक ऐसा तवा है जिसपर हर राजनीतिक दल अपनी रोटी सेकने का मौका तलाशते हैं?

न जाने क्यों हर दल इस मुद्दे को सुलझाने के बजाए इसे और उलझाने की कोशिश ही करता दिखाई देता है। ये लोग दूर बैठकर अपनी रोटियों के लिए हिंदू और मुसलमानों की लाशों का सौदा करते हैं और हम जो भारत को सभ्यता का जनक एवं अपनी एकता व अखण्डता का दम भरते नहीं थकते हैं, बाबर और राम का नाम आते ही अपनी सभ्यता खो बैठते हैं।

अयोध्या में सदियों से चले आ रहे राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद के ऐतिहासिक विवाद के इस वर्तमान अध्याय की शुरूआत 22-23 दिसंबर 1949 को मस्जिद के अंदर चोरी-छिपे मूर्तियां रखने की घटना के साथ हुई थी।

प्रारम्भ में मुद्दा सिर्फ इतना था कि ये मूर्तियां मस्जिद के आँगन में स्थित राम चबूतरे पर वापस स्थापित की जाएं या वहीं उनकी पूजा अर्चना चलती रहे। लेकिन, 60 सालों के लंबे सफ़र में अदालत को यह तय करना है कि क्या विवादित मस्जिद कोई हिंदू मंदिर तोड़कर बनाई गई थी और क्या विवादित स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है?

साथ ही अदालत को यह भी सुनिश्चत करना होगा कि क्या विवादित इमारत एक मस्जिद थी, वह कब बनी और क्या उसे बाबर अथवा मीर बाक़ी ने बनवाया था?

फैसले में कुछ तकनीकी या क़ानूनी सवाल भी हैं। जैसे क्या जिन लोगों ने दावे दायर किए हैं, उन्हें इसका हक़ है? क्या उन्होंने उसके लिए ज़रुरी नोटिस वग़ैरह देने की औपचारिकताएँ पूरी की हैं और क्या ये दावे क़ानून के तहत निर्धारित समय सीमा के अंदर दाख़िल किए गए है?

इस मसले पर यह देखना दिलचस्प होगा कि इलाबाद उच्च न्यायालय करीब सवा सौ साल पहले 1885– 86 में अदालत के दिए गए फैसले को अभी भी लागू करता है या उसके फैसले को रद्द करती है।

उल्लेखनीय है कि उस समय हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़े ने मस्जिद से सटे राम चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था। इस मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने हिंदुओं के जरिए पवित्र समझे जाने वाले स्थान पर मस्जिद का निर्माण को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा था कि इतिहास में हुई गलती को साढ़े तीन सौ साल बाद ठीक नही किया जा सकता है।

अदालत ने निर्मोही अखाड़ा की याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि ऐसा होने पर यह वहां प्रतिदिन सांप्रदायिक झगड़ें और ख़ून- ख़राबा होगा।

इस मामले के समाधान के लिए सरकारों ने मध्यस्त बनकर अनेकों बार संबंधित पक्षों में बातचीत कराई, लेकिन इससे भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला जा सका।

इससे पहले वर्ष 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में अपनी राय देने से इन्कार कर दिया था।

मामलें की सुनवाई के दौरान अदालत में ज़ुबानी और दस्तावेज़ी सबूतों के अलावा पुरातात्विक खुदाई के बाद तैयार रिपोर्ट को भी बतौर सबूत शामिल किया गया है। इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से ये कहा गया है कि विवादित मस्जिद के नीचे की गई खुदाई में मंदिर जैसी एक विशाल इमारत, खम्भे, एक शिव मंदिर और कुछ मूर्तियों के अवशेष मिले हैं।

हालांकि, मुस्लिम पक्ष ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की इस रिपोर्ट पर कड़ी आपत्ति करते हुए उसे सबूतों में शामिल न करने की मांग कर रहा है। जबकि हिंदू पक्ष इस रिपोर्ट के अपने दावे की पुष्टि में प्रमाण मानते हैं।

अदालत में मुख्य रूप से चार मुक़दमे विचाराधीन हैं, तीन हिंदू पक्ष के और एक मुस्लिम पक्ष का। लेकिन वादी प्रतिवादी कुल मिलाकर मुक़दमे में लगभग तीस पक्षकार हैं।

इस मामले में सरकार भी पक्षकार है, लेकिन उसकी तरफ से कोई अलग से पैरवी नही हो रही है। सरकार की तरफ से शुरुआत में सिर्फ़ ये कहा गया था कि वह स्थान 22/ 23 दिसंबर 1949 तक मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है और इसी दिन मस्जिद में मूर्तियां रखने का मुकदमा भी पुलिस ने अपनी तरफ से कायम करवाया था, जिसके आधार पर मस्जिद कुर्क करके ताला लगा दिया गया था।

इसके बाद इमारत तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम की सुपुर्दगी में दे दी गई और उन्हें ही मूर्तियों की पूजा आदि की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई थी।

इस दौरान तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट केके नैयर पर आरोप लगाया गया है कि वे उन लोगों का साथ दे रहे थे, जिन्होंने मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखीं। इसीलिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के कहने के बावजूद मूर्तियां नहीं हटवाईं थी।

इसके बाद 16 जनवरी 1950 को हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता गोपाल सिंह विशारद ने सिविल कोर्ट में ये अर्ज़ी दायर की। इस अर्जी में उन्होंने कहा कि मूर्तियों को वहां से न हटाया जाए और एक राम भक्त के रूप में उन्हें वहाँ पूजा अर्चना की अनुमति दी जाए। जिसकी सुनाई करते हुए अदालत ने पूजा आदि के लिए रिसीवर की व्यवस्था बहाल कर दी।

इसके कुछ दिन बाद ही दिगंबर अखाड़ा के राम चंद्र दास परमहंस ने भी इस पर अपना दावा दायर किया, जो उन्होंने बाद में 1989 में वापस ले लिया।

1959 में ही हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने अदालत में तीसरा मुकदमा दर्ज कर कहा कि उस स्थान पर सदा से राम जन्म स्थान मंदिर था और वह निर्मोही अखाड़ा की संपत्ति है, इसलिए रिसीवर हटाकर इमारत उसे सौंप दी जाए।

निर्मोही अखाड़ा का तर्क है कि 1934 के दंगों के बाद से मुसलमानों ने डर के मारे वहां जाना छोड़ दिया था, और तब से वहां नमाज़ नहीं पढ़ी गई है। इसलिए हिंदुओं का दावा पुख्ता हो जाता है।

इसके दो साल बाद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमानों ने मिल कर चौथा मुक़दमा दायर किया। उन्होंने दावा किया कि बाबर ने 1528 में यह मस्जिद बनवाई थी और 22/ 23 दिसंबर, 1949 तक यह मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है। अत: इतने लंबे समय तक उनका कब्ज़ा रहा, इस लिए इस विवादित भूमि को मस्जिद घोषित कर उन्हें कब्जा दिलाया जाए।

मुस्लिमों का तर्क है कि निर्मोही अखाड़ा ने 1885 के अपने मुकदमे में केवल राम चबूतरे पर दावा किया था, न कि मस्जिद पर।

मुस्लिम पक्ष राम चबूतरे पर हिंदुओं के कब्जे और दावे को तो स्वीकार करता है, लेकिन मस्जिद पर हिंदूओं के दावे से सहमत नहीं है।

उन्होंने माना कि वर्तमान अयोध्या वही अयोध्या है जहां राम चन्द्र जी पैदा हुए, लेकिन बाबर ने जहाँ मस्जिद बनवाई, वह खाली जगह थी।

करीब चार दशक तक यह विवाद अयोध्या से लखनऊ तक सीमित रहा। लेकिन 1984 में राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से जन्म भूमि का ताला खोलने के लिए जबरदस्त अभियान चलाकर इसे राष्ट्रीय मंच पर ला दिया।

इस समिति के अध्यक्ष गोरक्ष पीठाधीश्वर हिंदू महासभा नेता महंथ अवैद्य नाथ ने और महामंत्री कांग्रेस नेता व उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना इसमें शामिल थे।

एक फऱवरी 1986 को एक स्थानीय वकील उमेश चंद्र पाण्डे की दरख़ास्त पर तत्कालीन ज़िला जज एम. पाण्डे ने विवादित परिसर का ताला खोलने का एकतरफा आदेश पारित कर दिया, जिसकी तीखी प्रतिक्रिया मुस्लिम समुदाय में हुई।

इस प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन हुआ और मुस्लिम समुदाय ने भी विश्व हिंदू परिषद की तरह आन्दोलन और संघर्ष का रास्ता अख़्तियार किया।

इस मामले में एक और नया मोड 1989 के आम चुनाव से पहले आया, जब विश्व हिंदू परिषद के एक नेता और रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने एक जुलाई को भगवान राम के मित्र के रूप में पांचवां दावा फ़ैज़ाबाद की अदालत में दायर किया।

इस दावे में उन्होंने ये तो स्वीकार किया कि 23 दिसंबर 1949 को राम चबूतरे की मूर्तियां मस्जिद के अंदर रखी गईं थी। साथ ही उन्होंने दावा किया कि जन्म स्थान और भगवान राम दोनों पूज्य हैं और वही इस संपत्ति के मालिक।

इस दावे में मुख्य रूप से इस बात जोर दिया गया है कि बादशाह बाबर ने एक पुराना राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई थी। अपने दावे के समर्थन में उन्होंने अनेक इतिहासकारों, सरकारी गज़ेटियर्स और पुरातात्विक साक्ष्यों का हवाला दिया।

साथ ही यह भी कहा गया कि राम जन्म भूमि न्यास इस स्थान पर एक विशाल मंदिर बनाना चाहता है। इस दावे में राम जन्म भूमि न्यास को भी प्रतिवादी बनाया गया। इस न्यास के मुख्य पदाधिकारी विश्व हिंदू परिषद् के अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल हैं।

इस प्रकार पहली बार विश्व हिंदू परिषद भी परोक्ष रूप से पक्षकार बना।

वहीं, 1989 में राजीव गांधी ने अपने चुनाव अभियान की शुरूआत राम राज्य की स्थापना के नारे के साथ फ़ैज़ाबाद में जनसभा में की। चुनाव से पहले ही विवादित मस्जिद के सामने क़रीब दो सौ फुट की दूरी पर विहिप ने राम मंदिर का शिलान्यास किया, जो कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय की नाराज़गी का कारण बना।

विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में शिलान्यास से पहले इस मामले में अदालत के आदेश को स्वीकार करने की बात कही थी। लेकिन अब वह संसद में कानून बनाकर मामले को हल करने की बात करती है, क्योंकि उसके मुताबिक़ अदालत आस्था के सवाल पर फ़ैसला नही कर सकती।

अदालत में निर्मोही अखाड़ा और विश्व हिंदू परिषद एक दूसरे के विरोधी हैं।

जगदगुरु स्वामी स्वरूपानंद की राम जन्म भूमि पुनरुद्धार समिति भी 1989 में इस मामले में प्रतिवादी बनी। उनका दावा है कि पूरे देश के सनातन हिंदुओं का प्रतिनिधित्व यही संस्था करती है। उसके तर्क निर्मोही अखाड़ा से मिलते जुलते हैं।

हिंदुओं की दो और संस्थाएं हिंदू महासभा और आर्य प्रादेशिक सभा भी प्रतिवादी के रूप में इस स्थान पर सदियों से राम मंदिर होने का दावा करती हैं।

इनके अलावा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने कई अन्य हिंदुओं को उनकी निजी हैसियत से भी प्रतिवादी बनाया हैं। इनमे हनुमान गढ़ी के धर्मदास प्रमुख हैं। धर्मदास और निर्मोही अखाड़ा की पुरानी लड़ाई है और वह विश्व हिंदू परिषद के करीब हैं।

निर्मोही अखाड़ा ने कई स्थानीय मुसलमानों को प्रतिवादी बनाया है। मुसलमानों की ओर से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड मुख्य दावेदार है। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने हाशिम अंसारी समेत कई स्थानीय मुसलमानों को अपने साथ पक्षकार बनाया है।

उसके अलावा जमीयत-ए-उलेमा हिंद, शिया वक़्फ़ बोर्ड, आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस संस्थागत रूप से प्रतिवादी हैं।

मुस्लिम पक्षों का सबका दावा लगभग एक जैसा है सिवा आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस के जिसने पहले यह कहा था कि अगर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात साबित हो जाए तो मुलिम अपना दावा छोड़ देंगे।

शुरू में इस मुक़दमे में कुल 23 प्लाट शामिल थे, जिनका रक़बा बहुत ज़्यादा था। लेकिन छह दिसंबर को विवादित मस्जिद ध्वस्त होने के बाद 1993 में केंद्र सरकार ने मामला हल करने और मंदिर मस्जिद दोनों बनवाने के लिए मस्जिद समेत 70 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित कर ली गई।

1994 में सुप्रीम कोर्ट ने जमीन अधिग्रहण क़ानून को वैध ठहराते हुए कहा कि हाईकोर्ट को अब केवल उस विवादित स्थल पर मालिकाना हक़ को तय करना है।

इसके बाद केवल आधा बिस्वा ज़मीन का मुकदमा बचा है। कहने को यह आधा बिस्वा जमीन का मामला है लेकिन करोड़ों हिंदुओं और मुसलमानों की भावनाएं अब इससे जुड़ गई हैं। साथ ही यह अदालत और समूची न्यायपालिका की प्रतिष्ठा से जुड गया है और अदालत के फ़ैसले को लागू कराना सरकार का दायित्व बन गया है।

और इस प्रकार यह मामला पूरे भारतीय समाज और संवैधानिक-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए एक चुनौती बन गया।

1 comment:

Amit Soni said...

बहुत ही सुन्दर पोस्ट...........
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