Monday, September 20, 2010

भारत को महंगी पड़ सकती है चीन की अनदेखी


प्रदीप उपाध्याय

राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में चीन के खतरे की लगातार अनदेखी करना भारत को महंगा पड़ सकता है। चीन द्वारा वर्ष 1962 के प्रारम्भ में छिटपुट घुसपैठ से शुरू हुआ सिलसिला देखते ही देखते एक युद्ध में तब्दील हो गया और इसमें हमने अपने महत्त्वपूर्ण भू-भाग को खो दिया।

अब एक बार फिर चीन उसी रणनीति पर चलते हुए अरूणाचल के तवांग से लेकर कश्मीर में लेह तक घुसपैठ की लगातार कोशिशें कर रहा है। लेह की जिस पेगांग झील के 40 प्रतिशत हिस्से पर भारत का नियंत्रण था आज उसमें भी चीन पेट्रोलिंग कर रहा है। भारत के सिक्किम, अरुणाचल, लद्दाख पर भी चीन अपनी नजरें गड़ाए बैठा है।

भारत और चीन के बीच करीब 4,057 किलोमीटर लंबी सीमा है, सीमा पर सुरक्षाबलों की मुस्तैदी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चीनी सैनिक कई बार सीमा का उल्लघंन कर भारतीय सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाते दिखाई देते हैं। परिणाम स्वरूप 16 जून 2008 को चीनी सेना सिक्किम में काफी अंदर तक घुस आईं थीं। लेकिन वोटबैंक की राजनीति के चक्कर में लगे हमारे नेताओं ने इस संदर्भ में प्रकाशित खबरों को मीडिया द्वारा खड़ा किया गया एक हौव्वा बताकर अपनी कमजोरी को छिपाने की कोशिश की।

चीन और भारत के रिश्ते हमेशा नरम-गरम रहे हैं। वास्तव में चीन ने हमेशा अपने फायदे के लिए भारत का इस्तेमाल किया है। 1962 में हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे लगवाने वाला चीन आज भी भारत के साथ अपनी विश्वासघात की रणनीति पर कायम है। इसका ताजा उदाहरण कश्मीरी जनता को अलग से नत्थी वीजा देने और भारतीय सैन्य अधिकारी को बीजिंग यात्रा के लिए अनुमति देने से इंकार किया जाना है।

चीन ने 1962 में धोखे से किए युद्ध में भारत के करीब 38,000 स्क्वायर किलोमीटर भू-भाग पर कब्जा कर रखा है। यही नहीं उसने कश्मीर के 5180 स्क्वायर किलोमीटर के उस हिस्से को भी अपने नियंत्रण में ले रखा है, जो पाकिस्तान ने 1963 में उसे दिया था।

चीन ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में रणनीतिक लिहाज से महत्त्वपूर्ण गिलगिट-बालटिस्तान इलाके में अपने करीब 11 हजार जवान तैनात किए है। इस इलाके में अपनी पकड़ मजबूत करने के साथ ही चीन खाड़ी के देशों तक बेरोकटोक सड़क और रेल सम्पर्क बनाने की तैयारी में लगा है।

दरअसल, चीन के तेल टैंकरों को खाड़ी के देशों तक पहुंचने में 16 से 25 दिनों का समय लगता है। लेकिन खाड़ी के देशों से सड़क और रेल मार्ग से जुड़ने के बाद महज 48 घंटों में खाड़ी में मौजूद पाकिस्तानी नौसेना के बेस जैसे-ग्वादर, पसनी और ओरमारा तक साजो-समान पहुंचाएगा। इसके लिए पीएलए के सैनिकों ने गिलगिट-बालटिस्तान में रेल ट्रैक का निर्माण और कराकोरम हाई-वे के विस्तार का कार्य शुरू कर दिया है। यह हाई-वे चीन के सिन्कियांग सूबे को पाकिस्तान से जोड़ता है।

इससे पहले चीन ने समुंद्री क्षेत्र में अपनी पकड़ को मजबूत करने के उद्देश्य से बंगलादेश के चटगांव, पाकिस्तान के ग्वादर, अंडमान के पास कोको द्वीप और म्यांमार तक अपने नौसेना अडडे स्थापित कर लिए हैं। साथ ही भारत के उत्तर में हिमालयी और दक्षिण स्थित सागरीय सीमा सहित संपूर्ण सैन्य तंत्र पर चीन ने अभेद्य निगरानी तंत्र स्थापित कर लिए हैं।

हालांकि शुरूआत में तो चीन इन खबरों का खंडन करता ही दिखाई दिया। लेकिन पीओके में उसकी मौजूदगी की खबरों की जांच के संबंध में भारत के कड़े रूख को देखते हुए चीन ने सफाई देते हुए कहा कि चीनी सैनिक पाकिस्तान के बाढ़ प्रभावितों की मदद के लिए वहां तैनात हैं।

वहीं दूसरी तरफ, अमेरिका के दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ हैरिसन ने दावा किया है कि चीन ने इस इलाके में 22 सुरंगें भी बनवाई है, जिसे लेकर अभी भी रहस्य बना हुआ है। उनके मुताबिक पाकिस्तान के नागरिकों को भी इन सुरंगों के आस-पास जाने की मनाही है।

अगर खबरों की माने तो इन सुरंगों का इस्तेमाल गैस पाइपलाइन के अलावा मिसाइलों को छुपाने के लिए भी किया जाएगा।

चीन की खाड़ी देशों से करीब आने की कवायद के तहत यह रेल प्रोजेक्ट पहला कदम हो सकता है। यह प्रस्तावित रेल मार्ग चीन के काशघर से किर्गिस्तान, तजाकिस्तान होते हुए ईरान तक जाएगा। इसके निर्माण के साथ ही बीजिंग सीधे तेहरान से रेल मार्ग द्वारा जुड़ जाएगा। इस संबंध में चीन करीब 88 अरब रुपये की एक डील साइन करने जा रहा है। जिसके बाद चीन ईरान में रेल लाइन निर्माण का काम शुरू कर देगा। साथ ही बाद में इसे यूरोप से भी जोड़ने की योजना बनाई जा रही है।

खाड़ी देश खासकर ईरान अमेरिका का धुर विरोधी माना जाता है। चीन की पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान और तजाकिस्तान, किर्गिस्तान से करीबी अमेरिका और रूस के साथ-साथ भारत के लिए भी चिंता की वजह है।

चीन इस महत्वाकांक्षी योजना के तहत मध्य एशिया और मध्य पूर्व में अपनी पैठ बनाना चाहता है। साथ ही यह भी संभावना जताई जा रही है कि यह रेल लाइन बाद में ईरान, इराक और सीरिया को मिडल ईस्टर्न कॉरिडोर के तहत जोड़ सकती है।

हांलाकि मेरा मानना है कि 1962 की अपेक्षा हमारे देश की स्थिति काफी मजबूत है। आज हमारी अर्थव्यवस्था विश्व पटल पर तेजी से उभर रही है, ऐसे में चीन हमारे साथ सीधे लड़ाई नहीं करेगा। वह शीतयुद्ध की तरह ही हमे चारों ओर से घेरने की कोशिश कर रहा है। जैसे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ ने एक दूसरे को घेरने की रणनीति अपनाई थी।

उस दौरान समस्त विश्व दो भागों में विभाजित हो गया था। एक का प्रतिनिधित्व पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका कर रहा था, जबकि दूसरे का प्रतिनिधित्व समाजवादी सोवियत संघ कर रहा था। इन दोनों ने ही आमने-सामने की लड़ाई के बजाय कुटनीति का इस्तेमाल कर एक दूसरे को हानि पहुंचाने में लगे थे। यह संघर्ष द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से शुरू होकर 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही खत्म हुआ।

पाकिस्तान और अमेरिका में बढ़ती दरार



हाल ही में अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों में कड़वाहट नजर आने लगी है। दोनों देशों ने इसकी कोई अधिकारिक घोषणा तो नहीं की है, लेकिन इनके बीच के तनाव के लिए दो प्रमुख कारण बताए जा रहे है। इसकी एक वजह पाकिस्तान द्वारा तालिबान को समर्थन देने के अलावा चीन को खाड़ी के देशों तक पहुंचने में मदद करना है। जबकि दूसरी वजह अमेरिका द्वारा पीओके में हिंसक प्रदर्शनों मु्द्दे पर दिया गया बयान है जिसमें उसने कहा था कि गिलगिट-बालटिस्तान इलाके में विद्रोह से साफ है कि कश्मीर की स्वायत्तता के मुद्दे पर विचार करते समय पीओके पर भी विचार करना होगा।

चीन का अमेरिका पर निशाना



वहीं, चीन ने अमेरिका पर आरोप लगाया है कि वह भारत को चीन और पाकिस्तान के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है।

चीन का कहना है कि 'मिशन इराक' खत्म होने के बाद अमेरिका की निगाहें दक्षिण पूर्व एशिया, खास कर पाकिस्तान, चीन और भारत पर टिकी हैं। साथ ही वह चीन की बढ़ती ताकत और समृद्धि देख कर घबरा गया है और वह इसी घबराहट में चीन और पाकिस्तान की पक्की दोस्ती में दरार डालना चाहता है।

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